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प्रकीर्णक
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महाराज ने कहा- "इस मुनिधर्म का पालन करना बच्चों का खेल नहीं है। मुनिधर्म अत्यंत कठिन है, प्राणों की भी आशा छोड़कर मुनिपद अंगीकार किया जाता है। जब भी इस धर्म का पालन असंभव हो जाय तब समाधिमरण करना आवश्यक कर्तव्य हो जाता है । "
महाराज ने कहा- "इसका मूल आधार संसार तथा भोगों से उदासीनता और सम्पूर्ण आशाओं का परित्याग है । इसके लिए सदा अनित्य भावना अन्तःकरण में विद्यमान रहना चाहिए । जब बड़े - बड़े चक्रवर्ती इस जग को छोड़कर चले गये, तब सामान्य मनुष्य की क्या कीमत है ? राज्य से बढ़कर और क्या चीज है, उसको भी छोड़कर महापुरुषों ने मुनिजीवन को स्वीकार किया है। अब प्रश्न होता है, मुनि बनने का क्या उद्देश्य है ?" मुनि बनने का क्या उद्देश्य है ?
"कर्मों की निर्जरा करना मुनिजीवन का ध्येय है। मुनिपद को धारण किए बिना कर्मों की निर्जरा नहीं होती । गृहस्थ जीवन में सदा बंध का बोझा बढ़ता ही जाता है। उनके पास कर्म निर्जरा के साधन नहीं है। इसलिए निर्जरा के लिए त्यागी बनना आवश्यक है।"
जो यह सोचते हैं कि पेट भरने के लिए मुनिवृत्ति धारण की जाती है, वे उसके मर्म को नहीं जानते । वेष धारण करने मात्र से कर्मों की निर्जरा नहीं होती। नग्नता तो पशुओं में भी पाई जाती है, किन्तु उनमें आन्तरिक निर्मलता का अभाव है।"
मार्मिक बात
महाराज ने कहा- "परिग्रह का त्याग करके दिगम्बरवृत्ति धारण करना इसलिए आवश्यक है, कि परिग्रह से आरम्भ होता है और आरम्भ के द्वारा जीवों का घात होता है, इसलिए पूर्णतया अहिंसा का रक्षण नहीं होता अतः परिग्रह का परित्याग करना आवश्यक है। वह ममत्व-त्याग दिगम्बरत्व के बिना नहीं होता। ऐसे दिगम्बरत्व के बिना मोक्ष नहीं मिलता यह निश्चित बात है। नग्नता बालक के समान विकार - रहित होनी चाहिए।"
महाराज के चरणों की वंदना बड़े-बड़े नरेशों ने की है। बड़े-बड़े नरेशतुल्य वैभव वाले धन कुबेर उनकी चरणरज को अपने मस्तक में लगाकर अपने को कृतार्थ अनुभव करते हैं। उन्होंने हर प्रकार के समृद्ध व्यक्ति के जीवन को देखा है। सुखी निर्ग्रन्थ है
वे कहने लगे- "हमने खूब देखा है, इस दुनिया में कोई भी सुखी नहीं है। कोट्याधीशों को देखा है, राजा तथा रंक को देखा है। हमने सभी को दुःखी पाया है। यथार्थ में दुःख देने वाला कर्म है। उसकी निर्जरा द्वारा सुख मिलता है। निर्ग्रन्थ अवस्था में वह आनन्द प्राप्त होता है । "
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