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प्रकीर्णक
३३५ चाहिए। इसके द्वारा ही सच्चा कल्याण होगा।" ___ “कोई-कोई सोचते हैं कि जिस जैनधर्म में साँप-बिच्छू को मारना निषिद्ध माना गया है, उसके उपदेश के अनुसार राज्य की व्यवस्था कैसे हो सकेगी? यह धारणा ठीक नहीं है। जैनधर्म में सर्वदा संकल्पीहिंसा (Intentional Injury) न करने की आज्ञा है। गृहस्थ विरोधी हिंसा नहीं छोड़ सकता है। जैनधर्म के धारक चक्रवर्ती, मण्डलेश्वर, महामण्डलेश्वर आदि बड़े-बड़े राजा हुए है। गृहस्थ के घर में चोर घुस गए अथवा आक्रमणकारी आ गए, तब वह क्या उन्हें नहीं मारेगा? वह निरपराधी जीव की हिंसा नहीं करेगा। वह मांस नहीं खायेगा। वह शिकार नहीं खेलेगा। इस प्रकार निरपराधी जीव की रक्षा करते हुए तथा संकल्पी हिंसा का त्याग करके जैननरेश अहिंसा धर्म की प्रतिष्ठा स्थापित करता है।
अहिंसा की प्रधानता : महाराज ने कहा-“श्रावकों के अष्टमूलगुणों में यही अहिंसा का भाव है। मुनियों के अट्ठाईस मूलगुणों तथा चौरासी लाख उत्तरगुणों में भी यही अहिंसाप्रधान है। जीव, पुद्गल कर्म सब अलग-अलग हैं। इस बात का श्रद्धान करना चाहिए। तत्त्वश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन की पहचान प्रशम, संवेग, अनुकम्पा तथा आस्तिक्य भाव द्वारा होती है। यदि तुम्हें कल्याण करना है, तो जिनवाणी तथा आत्मा पर विश्वास रखो।"
नश्वरता : उपदेश के अन्त में आचार्य महाराज ने कहा था-"जगत् के सभी पदार्थ विनाशीक हैं। अभी राम नहीं हैं, कृष्ण नहीं हैं, इसी प्रकार दूसरे भी नहीं रहेंगे। इस शरीर को छोड़कर दूसरी देह को धारण करना पड़ेगा, इसलिए आगे के मकान की व्यवस्था क्यों नहीं करते? हमारा यही कहना है कि अहिंसा के मार्ग में लगो, इसके द्वारा तुम्हारा और संसार का कल्याण होगा।" १९५२ की जुलाई का द्वितीय सप्ताह
१९५२ की जुलाई के द्वितीय सप्ताह में भगवान् बाहुबली के महामस्तकाभिषेक के संबंध में राज्य के अधिकारियों से जैन प्रतिनिधि के रूप में चर्चा तथा परामर्शनिमित्त मैसूर, श्रवणबेलगोला, बंगलोर पहुँचने का अवसर मिला। १३ जुलाई सन् १९५२ का रविवार का मध्याह्न-काल जीवन के लिए चिरस्मरणीय स्वर्णक्षण था, जब भगवान् गाम्मटेश्वर स्वामी के अचिन्त्य चरणों के दर्शन का पुण्य सौभाग्य मिला। नेत्रों का पाना कृतार्थ प्रतीत हुआ। लोणंद चातुर्मास
वहाँ से अपने भाई अभिनन्दनकुमार (एम.ए., एल.एल.बी.) के साथ लौटते हुए १६
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