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प्रकीर्णक
परोपकारिता
· वहाँ एक बालक एक विषैले वृक्ष को तोड़ रहा था जिसके दूध से शरीर फूल जाता है। उस बच्चे के माता-पिता को भी अपने बालक का ध्यान न था । सहसा महाराज की दृष्टि उस बालक पर पड़ी उन्होंने बालक के माता-पिता को बालक के संरक्षण के निमित्त सावधान किया। आत्मकल्याण के साथ वे लोकहित की दृष्टि में रखते थे ।
उपवास
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उपवास के विषय में उन्होंने कहा था, "जब तक धर्मध्यान रहे, तब तक उपवास करना चाहिए। आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान उत्पन्न होने पर उपवास करना हितप्रद नहीं है । वैभवशाली दयापात्र है
दीन और दुखी जीवों पर तो सबको दया आती है। सुखी प्राणी को देखकर किसके अन्तःकरण में करुणा का भाव जगेगा ? आचार्य महाराज की दिव्य-दृष्टि में धनी और वैभव वाले भी उसी प्रकार करुणा और दया के पात्र हैं, जिस प्रकार दीन, दुखी तथा विपत्तिग्रस्त दया के पात्र हैं। एक दिन महाराज कहने लगे, "हमें सम्पन्न और सुखी लोगों को देखकर बड़ी दया आती है।"
मैंने पूछा, “महाराज ! सुखी जीवों पर दयाभाव का क्या कारण है?” महाराज ने कहा था- "ये लोग पुण्योदय से आज सुखी हैं, आज सम्पन्न हैं, किन्तु विषयभोग में उन्मत्त बनकर आगामी कल्याण की बात जरा भी नहीं सोचते, जिससे आगामी जीवन भी सुखी हो।" जब तक जीव संयम और त्याग की शरण नहीं लेगा, तब तक उसका भविष्य आनन्दमय नहीं हो सकता। इसलिए हम अपने भक्तों को आग्रहपूर्वक असंयम की ज्वाला से निकालकर संयम के मार्ग में लगाते हैं। महाराज ने यह महत्व की बात कही थी, "हमने अपने बड़े भाई देवगोंडा को कुटुम्ब के जाल से निकालकर दिगम्बर मुनि बनाया । उसे वर्द्धमानसागर कहते हैं। छोटे भाई कुमगौंडा को ब्रह्मचर्य प्रतिमा दी और उसे मुनि दीक्षा देते, किन्तु शीघ्र उसका मरण हो गया । "
विशेष दया पात्र
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"हमारे मन में उन लोगों पर बड़ी दया आती है, जो खूब सेवा, भक्ति करते हैं, जो हमारे पास बार-बार आते हैं, किन्तु व्रत पालन करने से डरते हैं। "
यथार्थ में लोकोद्धार के लम्बे-लम्बे भाषण देने से या बड़ी-बड़ी सुन्दर योजनाओं के बनाने से लोक का सच्चा अभ्युदय नहीं होता । लोकहित का सच्चा उपाय गुरुदेव की दृष्टि में संयम मार्ग का अपनाना है। आत्मोत्कर्ष की श्रेष्ठ कला सदाचार और इंद्रियजय का पथ है।
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