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आगम
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जाय, तो पुरुषों के मोक्ष की सिद्धि भी नहीं हो सकती है । अत: इस निमित्त तथा उपादान कारण की उपयोगिता को बताने के कारण, हे भगवन् ! आप सुधी समाज द्वारा वंदनीय हैं। ""
इस कारिका की टीका करते हुए आचार्य प्रभाचन्द्र ने भी लिखा है- “उपादान कारणं सहकारिकारणमपेक्षते, तच्चोपादानकारणम्” अर्थात् उपादान कारण सहकारी कारण की अपेक्षा करता है और सहकारी कारण उपादान कारण की अपेक्षा करता है। कार्य की सिद्धि के लिये उपादान और निमित्त की सापेक्षता कारण है। चूँकि उपादान और निमित्त परस्पर निरपेक्ष होकर इष्ट कार्य को उत्पन्न करने में असमर्थ रहते हैं, अतः इसके विपरीत श्रद्धा सम्यक्त्वी की नहीं होती है। सम्यक्त्वी स्वच्छंद न हो, आगमानुसारी होता है। स्याद्वाद शैली की शरण हित- प्रद
इस प्रकार महान् आर्षवाणी के प्रकाश में भैया पं भगवतीदास के निमित्त - उपादान संवाद का सुसंगत भाव यही होगा कि इनका एकांत पक्ष तर्क तथा प्रमाण- बाधित है । निमित्त को नगण्य गिनने से विश्व की समस्त तत्वव्यवस्था में गड़बड़ी आ जायेगी। सरोवर, पवन का संचार न होने पर शांत दिखता है । पवन संचार से जल में लहरें उठती हैं। जल रूप उपादान के साथ पवन संचार रूप निमित्त जैसे लहरों का उत्पादक है, उसी प्रकार अंतरंग उपादान सामग्री के साथ निमित्त कारण का योगदान भी चाहिए । एक कारण से काम नहीं बनेगा ।
व्यवहार चारित्र से क्या लाभ ?
अतएव - वचन-पक्ष को छोड़कर स्याद्वाद पद्धति की शरण लेना श्रेयस्कर होगा । असली अध्यात्मवाद स्याद्वादशैली के साथ शत्रुता धारण करेगा, यह स्वप्न में भी कल्पना नहीं करनी चाहिए। परमागम के प्राण अनेकान्तवाद का दास जहाँ नहीं होगा, वहाँ अध्यात्म विद्या के देवता के स्थान में नकली तत्वभक्षिणी अध्यात्म विद्या नाम की राक्षसी का निवास मानना होगा, जो जीवों को भ्रम में भुलाकर दुर्गति का पात्र बनाती है । इसी कारण आचार्य शांतिसागर महाराज व्यवहार - चारित्रपालन की प्रेरणा करते थे क्योंकि इस मार्ग से निश्चय सम्यक्त्व प्राप्ति का सुयोग आता है।
सदाचार की शक्ति
इस जीव को नरक पशु रूप दुर्गति के पतन से बचाने की शक्ति गृहीतमिथ्यात्वसहित तपस्या तक में पाई जाती है। चौबीस ठाणा चर्चा में लिखा है कि परमहंस नामा परमती, सहस्रार ऊपर नहिं गती" - मिथ्यात्व के आराधक परमहंस साधु बारहवें स्वर्ग पर्यन्त
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बाह्येतरोपाधि - समग्रतेयं, कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः ।
नैवान्यथा मोक्षविधिश्च पुंसां, तेनाभिवंद्य स्त्वमृषिर्बुधानाम् ॥ ६० ॥
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