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चारित्र चक्रवर्ती महत्वपूर्ण सूचना
गृहस्थों के सम्बन्ध में महाराज ने कहा, “गृहस्थ की मृत्यु होने के बाद शरीर के दाह हो जाने पर अवशेष हड्डी आदि को नदी में कभी न डालो। उस क्षार से बहुत से जीव मर जाते हैं। जमीन में गड्ढा करके अवशेषों को गाढ़ देना चाहिए।"
लोकरुढ़िवश मृत व्यक्ति की अस्थि का नदी में डालने की सार्वजनिक प्रवृत्ति का धर्मात्माओं को अनुकरण नहीं करना चाहिए। व्रतों के विषय में
व्रतों के विषय में महाराज ने कहा, “सोलहकारण सोलह दिन का भी किया जाता है। कोई-कोई व्रत ऐसे हैं, जिनमें बाधा आने पर पूरा व्रत पुन: करना पड़ता है। अष्टाह्निका या दशलक्षण व्रत में जिस वर्ष विघ्न आवे, उसकी पूर्ति आगामी वर्ष कर लेवें, अधिक सुघड़ाई ठीक नहीं है। इसको स्पष्ट करने के लिए महाराज ने उस सुघड़ गृहस्थ की कथा बताई जिसे संदेह हो गया था कि मेरे पैर में कौन सा मलिन पदार्थ लग गया है, अत: उसने हाथ लगाकर देखा, नासिका से स्पर्श किया, इस प्रकार उस मलिन वस्तु से हाथ, पैर, नासिका सब मलिन हो गए।" आहार ग्रहण
एक दिन महाराज के जीवन के सम्बन्ध में यह बात उनसे सुनने में आई थी कि “पहले १० या १२ वर्ष पर्यन्त हम दूध, चावल मात्र आहार में लेते थे। आहार करने में पाँच मिनिट से अधिक समय नहीं लगता था। उस समय हमारे दाँत थे। अब दाँत न रहने से देर लगती है। गृहस्थावस्था में पाँच वर्ष पर्यन्त हमने एक बार भोजन तथा जल का नियम पालन किया था।"
डिग्रज मन्दिर की विशेषता बतलाते हुए एक दिन महाराज ने बताया था कि दक्षिण में डिग्रज का जिनमंदिर बनाने में छने पानी का उपयोग किया गया है। सुखी श्रीमंत
एक दिन महाराज ने कहा, “धर्म श्रेष्ठ है, धन नहीं। धर्मपालन करने वाला श्रीमंत सुखी रहता है। पश्चिम के देशों में धन वैभव कितना ही अधिक हो, किन्तु सुखी श्रीमंत भारत में ही मिलेंगे। बालकों पर प्रेम
वीतरागता की सजीव मूर्ति होते हुए आचार्यश्री में अपार वात्सल्य पाया जाता था। लगभग १६३८(संवत्) के भाद्रपद की बात है। उस समय महाराज ने बारामती में सेठ
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