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तीर्थाटन
१६५ की सदा सहायता की है और उनके संकट दूर किये हैं। __ इस प्रसंग में यह बात ध्यान देन की है कि सम्यग्दृष्टि जीव भवनत्रिक देवों में उत्पन्न नहीं होता। भवनत्रिक में उत्पन्न होने के पश्चात् सम्यक्त्व प्राप्त होने में कोई बाधा नहीं है। सौधर्मेन्द्र की इन्द्राणी सम्यक्त्व युक्त हो जन्म नहीं लेती, किन्तु पश्चात् वह सम्यक्त्व प्राप्त करती है। ऐसी ही स्थिति शासन देवों की है। शील पाहुड में “अरहंते सुहभत्ती सम्मतं"(४०) अर्हन्तों में निर्मल भक्ति सम्यक्त्व है, ऐसा कुंदकुंद स्वामी ने कहा है। यह परिभाषाशासन-देवताओं में पाई जाने से उनको सम्यक्त्वी मानना उचित है। वेवात्सल्यमूर्ति रहते हैं।
उत्तरपुराण में कहा है कि प्रलय के पूर्व मुनि के प्रथम ग्रास को टैक्स रूप में लेने वाले दुष्ट कल्की को शुद्ध सम्यक्त्वी यक्ष मार डालता है। "असुरः शुद्धदृक"-शुद्ध सम्यक्त्वी असुर, अतः शासन-देवताओं को सम्यक्त्वी जानना उचित है (पर्व ७६, ४१४)। वास्तव में उस नाग युगल का सौभाग्य अवर्णनीय था। कवि भूधरदास ने जो लिखा है वह पूर्णतया सत्य है -
नाग युगल के भाग की महिमा कही न जाय।
जिन दर्शन प्रापति भई मरण समय सुखदाय॥ इस अपूर्व उपकार को सदा स्मरण रखते हुये कृतज्ञ जीव, प्रभु पार्श्वनाथ का प्रेम से नाम लेने वालों की कामना पूर्ण करते हैं। इसीलिए भगवान पार्श्वनाथ की जन्मभूमि काशी वासी एक भक्त कवि वृन्दावन ने लिखा है -
वामासुत की सेवा करिये, काहे मन में शंका धरिये।
पद्मा जाकी दासी कहिये, जो जो सुख मांगो सो लहिये। नागपुर का इतवारा बाजार, सराफा बाजार तीन दिन पर्यन्त बंद रहे थे। यथार्थ में देखा जाय तो कहना होगा कि इन रत्नत्रय मूर्ति को प्राप्त कर पारलौकिक धनसंचय में चतुर व्यापारी निमग्न थे, इसी दृष्टि को प्राधान्य दे उन्होंने बड़े-बड़े दरवाजे बनवाये थे। तोरण, वंदनमाल, आदि से नगरी को सजाया था। इसलिये नगर बड़ा नयनाभिराम लगता था। वहां ऐलक चंद्रसागर तथा पायसागर ऐनापुर वालों का केशलोंच हुआ था। लगभग १५ हजार जनता उपस्थित थी। धर्म-पुरुषार्थ पर विवेचन
उस अवसर पर धर्म पुरुषार्थ के विषय में महाराज का मार्मिक उपदेश हुआ। वास्तव में जिनका जीवन धर्ममय है और जो धर्ममूर्ति हैं, वे ही धर्म के विषय में अधिकारपूर्वक बात कह सकते हैं और उनसे ही श्रोताओं का हृदय मंगल प्रकाश प्राप्त करता है। पापाचरण में निमग्न बुद्धिजीवी व्यक्तियों के मुख से धर्म के प्रतिपादन में सप्राणता नहीं
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