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चारित्र चक्रवर्ती
विश्वास हो गया है कि यह काम पूर्ण हो जायेगा ।"
मार्मिक बात
महाराज ने कहा, "धवल ग्रंथ की जो प्रतियाँ छपी और उत्तर भारत में प्रचार में आई, उन सब में तेरानवे सूत्र में ' संजद पद नहीं रहा । हमारी प्रेरणा से ग्रंथ का ताम्रपत्र का कार्य हुआ। इससे संजद शब्द जोड़ने की लोगों की कल्पना हुई । स्त्री के द्रव्य से यदि संजदपना प्रसिद्ध हुआ, तो इसके कारण हम ही हुए, अथवा पूर्व छपे ग्रंथ से द्रव्य स्त्री के
जपने का अभाव ज्ञात होने से दिगंबर आगम परंपरा का लोप नहीं होता था । हमने आगम-रक्षा के उद्देश्य से कार्य करवाया और उसका फल दिगम्बर परंपरा का ही उच्छेद होने लगा । अतएव इसका दोष हम पर आता है, इसलिए हमने इस प्रश्न पर बहुत विचार किया है। बड़े-बड़े विद्वानों से चर्चा की है। पूर्वापर विचार किया है। यह सोचना बिल्कुल भूल है कि हम किसी के कहने में आ गये हैं। हमारी प्रकृति स्वतंत्र है। पूर्ण विचार के बाद हम अपनी राय बनाते हैं। गत वर्ष अर्थात् सन् १६५० में धवल सिद्धांत - ग्रंथ को ताम्रपत्र में उत्कीर्ण करने का कार्य पूर्ण हुआ ।"
निर्णय
" उस समय ग्रंथ - समर्पण करते समय तलकचंद शहा वकील ने गजपंथा में आधा घंटा तक भाषण दिया और समाज की ओर से हमसे आग्रह किया कि हम संजद पद के विवाद के विषय में अपना भाव प्रगट करें, कारण पंडित लोग एकमत नहीं हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में हमारा निर्णय सबको मान्य होगा । "
"
“ उस समय वहाँ भावपक्ष वाले तथा द्रव्य पक्ष वाले विद्वान् भी मौजूद थे, उन्होंने कोई विरोध नहीं किया और न यह कहा कि आप अभी निर्णय मत कीजिए, कारण हम लोगों का इस संबंध में विरोध है । 'जिनवाणी - जीर्णोद्धारक संघ के ट्रस्टी तथा सदस्य लोग हमारा निर्णय मान्य करेंगे, उनको दुनिया भर के लोगों के विवाद से प्रयोजन नहीं है ।' ऐसी बात भी शहा वकील ने कही। "
"हमने सोचा कि समाज के विद्वानों में एक मत नहीं है। दोनों पक्ष में समाज के बड़े-बड़े विद्वान् हैं। ट्रस्टी लोग हमसे आग्रह करते हैं कि हम निर्णय दें कि दोनों पक्ष के विद्वानों के कथन को पूर्ण रीति से विचारने के बाद किस प्रश्न की बात धर्म तथा आगम परम्परा के अनुकुल हमको जँचती है। ऐसी स्थिति में हमने निर्णय दिया था कि उभय पक्ष के विद्वानों के कथन पर पूर्ण रीति से विचार किया तथा मूल सूत्रों पर भी ध्यान दिया, तो हमें यही प्रतीत हुआ कि सूत्र नं. १३ में द्रव्यस्त्री का कथन है । द्रव्यस्त्री के पाँच ही गुणस्थान होते हैं, वह
१. सम्मामिच्छाइट्ठि - सम्माइट्ठि संजदासंजदट्ठाणे णियमा पज्जत्ति याओ ॥ ६३, धवला पु. १ ॥
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