________________
प्रभावना
२६८
मुख्य-मुख्य राजपथों से आया-जाया करते थे । कहीं भी कोई रोक-टोक नहीं हुई। यह उनके तप का महान् तेज ही था, जो इस जमाने में सात दिगम्बर मुनियों का संघ निर्विघ्न रीति से भारत की राजधानी में भ्रमण करता रहा। बड़े-बड़े राज्याधिकारी, न्यायाधीश आदि महाराज के दर्शन करके अपने को धन्य मानते थे । दिगम्बर मुनियों का विहार न होने से कई लोगों को दिगम्बरत्व यथार्थ में 'अंधे की टेढ़ी खीर ' जैसी समस्या बन जाया करता है, किन्तु प्रत्यक्ष परिचय में आने वाले लोगों को वे परमाराध्य, सर्वदा, वन्दनीय और मुक्ति का अनन्य उपाय प्रतीत होते हैं।
आश्विन मास में आचार्य महाराज ने वैदवाड़ा में आकर निवास किया था। आज वहाँ आचार्यश्री की स्मृति में श्री शांतिसागर दि. जैन कन्या शाला चल रही है । कुछ समय तक संघ पहाड़ीधीरज नाम के मुहल्ले में रहा और आसपास सर्वत्र विहार करता रहा। कुछ काल पर्यन्त संघ ने धर्मपुरा में निवास किया था । आश्विन सुदी अष्टमी को वैदवाड़ा में आचार्य महाराज का केशलोंच हुआ था । वहाँ आचार्यश्री के द्वारा सभी लोगों को महान् शांति तथा आनंद प्राप्त हुआ था। स्मारक स्तंभ
संघ के देहली चातुर्मास का स्मारक एक लघु स्तंभ लाल किले के सामने वाले लालमंदिर के बहिर्मार्ग में विद्यमान है, उसमें संघस्थ साधुओं का जीवन-परिचय संक्षेप में दिया गया है। इस सत्कार्य का अनुकरण उन स्थानों पर उपयोगी है जहाँ आचार्यश्री का विशेष कालपर्यन्त निवास रहा हो ।
अपूर्व धर्मप्रभावना
आचार्यश्री के देहली प्रान्त में विहार करने से जनता में अपूर्व धार्मिक जागरण हुआ ।
ने महाराज के श्रेष्ठ व्यक्तित्व का परिचय प्राप्त किया। उन्होंने अनुभव किया कि गुरुदेव का जीवन लोकोत्तम है । वह इतना उज्ज्वल है कि उनके समकक्ष मूर्ति का विश्वभर में दर्शन नहीं होता। जगत् में साधुत्व को स्वीकार करते हुए भी परिग्रह पिशाची से किसका पिंड छूटता है ? कुछ लोग परिग्रह धारण करते हुए अपने बुद्धि-कौशल से अपने को अपरिग्रही कहते हैं। वे कहते हैं, हमारी आसक्ति इन वस्तुओं में नहीं है। यह स्पष्ट आत्मवंचना है । बाह्य वस्तुओं के प्रति ममता नहीं है तो फिर उनका संग्रह, संरक्षण, उपभोग आदि क्यों करते हैं ? इस प्रश्न का प्रामाणिक तथा मनोवैज्ञानिक समाधान उनके पास नहीं है। ऐसी अस्वच्छ वृत्ति से न आत्मा का सच्चा हित होता है और न निर्विकल्प जीवन का स्वाद ही आता है। आज के दुःखी विश्व को अपनी समस्याओं को सुलझाने का प्रकाश आचार्यश्री के समान इन श्रमणों के जीवन से प्राप्त होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org