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चारित्र चक्रवर्ती मथुरा चातुर्मास
वर्षाकाल समीप आ जाने से संघ ने मथुरा पहुंचकर चातुर्मास करने का निश्चय किया। मथुरा नगर प्राचीन काल से ही जैन संस्कृति का केन्द्र रहा है।
समाज में यह प्रसिद्ध है कि अंतिम अनुबद्ध केवली जम्बू-स्वामी का निर्वाण चौरासी मथुरा से हुआ है। कवि राजमल्ल ने जंबू-स्वामी चरित्र में लिखा है कि माघ शुक्ल सप्तमी के शुभ दिन में विपुलाचल पर्वत के शिखर से सुधर्म केवली ने मोक्ष प्राप्त किया। उस दिन भगवान् जम्बू-स्वामी मुनिराज को, जब दिन का आधा पहर बाकीथा केवलज्ञान प्राप्त हुआ।
इसके पश्चात् गंधकुटी में विराजमान होकर उन महाप्रभु ने मगध आदि बड़े-बड़े देशों में तथा मथुरा आदि नगरों में विहार किया। इसमें केवली भगवान् ने १८ वर्ष पर्यंत धर्मोपदेश देते हुए लोगों को आनंद प्रदान किया। इसके अनंतर उन केवली भगवान् का विपुलाचल पर्वत से मोक्ष हो गया। वे अष्ट कर्मों से मुक्त होकर अविनाशी अनंत सुख के स्वामी हो गये।
इस कथन से यह ज्ञात होता है कि जंबूस्वामी का मोक्ष मगध देश की राजधानी राजगृही के समीपवर्ती विपुलाचल पर्व से हुआ था। जंबूस्वामी ने अनेक देशों में अठारह वर्ष विहार किया था, उनमें मथुरा का भी उल्लेख है। अतः गंधकुटी का आगमन मथुरा में मानना होगा, निर्वाण स्थल मानना असम्यक् है।
प्राकृत निर्वाण काण्ड में भी लिखा है :
मथुरा में वीर भगवान् को, अहिच्छत्र में पार्श्वनाथ स्वामी को मैं नमस्कार करता हूँ। जंबूवन के मध्य से मोक्ष प्राप्त करने वाले जंबूमुनिश्वर की वंदना करता हूँ। __ हरिवंशपुराण में विपुलाचल पर्वत को विपुल श्रीयुक्त लिखा है - आरूरोह गिरिं तत्र विपुलं विपुलश्रियं (३-६-२), अतः वहाँ पर ही जंबूवृक्ष का वन रहा होगा, यह मानना १. तपोमासे सिते पक्षे सप्तम्यां च शुभे दिने। निर्वाणं प्राप सौधर्मो विपुलाचलमस्तकात्॥११०॥ तत्रेवाहनि यामार्ध व्यवधानवतिः प्रभोः । उत्पन्नं केवलज्ञानंजम्बूस्वामिमुनेस्तदा ॥११२॥
- जंबूस्वामीचरित्र-सर्ग १२
२. विजहर्षततोभूभौश्रितो गंधकुटी जिनः। मगधादि-महादेश-मथुरादि-पुरीस्तथा ॥ ११ ॥
कुर्वन् धर्मोपदेशंस केवलज्ञानलोचनः । वर्षाष्टदशपर्यन्त स्थितस्तत्र जिनाधिपः ।।१२०॥ ततोजगाम निर्वाणं केवली विपुलाचलात्। कर्माष्टकविनिर्मुक्तःशाश्वतानंदसौख्यभाक् ॥ १२१॥
- जंबूस्वामीचरित्र-सर्ग १२ ३. महुराए अहिछित्ते वीरंपासंतहेववंदामि। जंब मुणिंदो वंदे णिव्बुइपत्तो विजंबुवणगहणे॥
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