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प्रभावना भी हो सकती है। अतः चरणचिन्हों की स्थापना की जाती है, और की जानी चाहिए। श्वेतांबरों में चरणों की स्थापना करके पूजा करते हैं। शिखरजी का मुकदमा जब प्रीविकौंसिल में लंदन गया था, तब वहाँ चरण और चरणचिन्ह पूजा का भेद उपस्थित हुआथा। महातपस्या
चातुर्मास में आचार्य शान्तिसागर महाराज मथुरा में रहेंगे, इससे ऐसा लगा मानो कृष्णपुरी मथुरा में पुनः वीतरागशासन की प्रभावना का पुण्य-युग अवतीर्ण हो गया हो। दूर-दूर के हजारों लोगों ने आकर जीवित तीर्थ का दर्शन कर अपने को धन्य माना था। वहाँ आचार्य महाराज ने घोर तप करना प्रारम्भ कर दिया, सात-सात, आठ-आठ उपवासपूर्वक आहार लेना साधारण बात हो गई थी। देखने वाले जैन, अजैन सभी लोग चकित होते थे। जो मथुरा सेरों मिष्टान्न उड़ाने वाले बहुभोजी वर्ग के लिए विख्यात है, वहाँ आठ-आठ दिन तक अन्न कण भी न ले और जल के बिन्दु भी न ग्रहण किए आध्यात्मिक साधना में बड़ी सावधानी के साथ संलग्न आचार्यश्री को देख किसके अन्तःकरण पर प्रभाव नहीं पड़ेगा ? मुनि नेमिसागरजी ने वसन्तरुद्रोदर व्रत प्रारम्भ किया था। श्री नेमिसागर मुनि ने लघुसिंहनिःक्रीड़ित व्रत किया था। और भी संघ के साधु महान् तपश्चर्या में समुद्यत थे। लोगों को ऐसा लगता था कि हम इस प्रसिद्ध मथुरापुरी में पुराणप्रसिद्ध सप्तऋषियों का ही दर्शन कर रहे हैं। महान् तपश्चर्या, धर्मध्यान में संलग्नता, षटावश्यक पालनपटुता आदि बातें उक्त भावना को प्रबुद्ध करने में विशेष कारण थी। ऐसी प्रभावना, ऐसा उत्सव और तपस्वियों का समागम मथुरा के इतिहास में आदरपूर्वक स्मरण किया जाएगा। आगम में धर्म की प्रभावना के कारणों में तपश्चर्या को भी हेतु बताया है। ऐसे उग्र तपस्वियों के द्वारा बड़ी प्रभावना हुई।
दशलक्षण पर्व के पश्चात् आश्विन वदी तृतीया को मथुरा नगर में बड़े वैभव के साथ जिन भगवान् का रथ निकला था। जहाँ मथुरा में पहले से वर्षा न होने से सूखापन था वहाँ तपस्वियों के चरण पड़ते ही विपुल वर्षा द्वारा हरियाली लहलहाने लगी। साधारण जनता इसी प्रभाव से प्रभावित और आनन्दित थी। हजारों अजैन भाइयों ने भी रथोत्सव देखकर अपना जन्म सफल किया। विद्वेषी जन जब तक जिन बिम्ब का दर्शन नहीं करते हैं, तब तक तो उनकी विपरीत भावना जीवित रहती है, किन्तु जिनके नेत्र ध्यानपूर्वक जिन भगवान् का दर्शन कर लेते हैं, तो वे भगवान् की शान्त वैराग्ययुक्त मुद्रा को देखकर मन में पछताते हैं कि क्यों हमने विद्वेष करने का पाप किया। ऐसी स्थिति हजारों की है। अब तो सर्वसाधारण प्रेम से जैनमन्दिरों का दर्शन कर शान्ति प्राप्त करते हैं।
दिगम्बर, बाह्यसामग्रीविहीन, शस्त्रादि रहित तथा भयविमुक्त जैनमूर्ति में गीतोक्त स्थितप्रज्ञ महायोगी का स्वरूप परिलक्षित होता है। गीता (२,५६) का यह पद्य
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