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चारित्र चक्रवर्ती
पुरातन संस्कार के प्रभाव से दान देने की बुद्धि उत्पन्न हो गई। उनको स्मरण हो गया कि हमने चारण ऋद्धिधारी मुनियुगल को श्रीमती और वज्रजंघ के रूप में आहार दिया था ।
इस पुण्य स्मृति की सहायता से श्रेयांस महाराज ने इक्षुरस की धारा के समर्पण द्वारा एक वर्ष के महोपवासी जिनेन्द्र आदिनाथ प्रभु के निमित्त से अपने भाग्य को कृतार्थ किया। इस अक्षयदान के कारण 'अक्षय तृतीया' पर्व परम मांगलिक अवसर माना गया। किसी भी मांगलिक कार्य करने में 'अक्षय तृतीया' को स्वतः सिद्ध पवित्र माना जाता है। इस दान के कारण चक्रवर्ती भरतेश्वर आयोध्या से इसी हस्तिनागपुर में पधारे थे, और उन्होंने महाराज श्रेयांस की पूजा-स्तुति करते हुए कहा था, 'हे कुरुराज ! हे श्रेयाँस ! आज तुम भगवान् वृषभदेव के समान हमारे लिये पूजनीय हो, कारण श्रेयांस तुम दानतीर्थ के प्रवर्तक हो, तुम महान् पुण्यशाली हो । १
भरतेश्वर ने श्रेयांस महाराज को 'महादानपति' कहा था। उनके शब्द थे- महादानपते ब्रूहि कथं ज्ञातमिदं त्वया (२०, १२६, महापुराण) । इस दान की अनुमोदना द्वारा अनेकों ने महान् पुण्यसंचय किया था - 'दानानुमोदनात्पुण्यं परोपि बहवोऽभजन' (२०, १०७ महापुराण) । सत्कार्य की हृदय से सराहना करने वाला भी सातिशय पुण्य का बन्ध करता है।
यह हस्तिनापुर दान - तीर्थकर की भूमि होने से परम आदरणीय हैं। हरिवंश पुराण में लिखा है कि जब धर्म तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव की पूजा हुई और वे तप की वृद्धि के हेतु वहाँ से चले गए, तब देवताओं ने दान - तीर्थंकर श्रेयांस की अभिषेकपूर्वक पूजा की थी । ' भगवान् शांति, कुंथु, अरहनाथ की जन्मभूमि
इस हस्तिनागपुर की भूमि पर श्रेष्ठ वैभव अपनी पवित्र लीला दिखा चुका है। अपनी पुण्यभावना के द्वारा वंदक व्यक्ति उस पुरातन पुराणगत इतिहास को स्मृतिपथ में उतार सकता है। इस भूमि को भगवान् शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरहनाथ इन तीन तीर्थकरों ने अपने गर्भ जन्म तथा तपकल्याण के द्वारा पवित्र किया था।
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महाकवि बनारसीदास ने संवत् १६५७ में इस पुण्यस्थल पर पहुंच कर चक्रवती तीर्थंकर की पूजा की थी, उन्होंने लिखा है कि :
अहिछता हथिनापुर जात । चले बनारसि उठि परभात ।। मत और भारजा संग । रथ बैठे धरि भाउ अभंग ॥ ५८० ॥
१. भगवानिव पूज्योसि कुरुराज त्वमद्य नः ।
त्वं दान - तीर्थकृत् श्रेयान् त्वं महापुण्यभागसि ॥ आदि पुराण, पर्व २०, श्लोक १२७ ॥
२. अभ्यर्चिते तपोवृद्धै धर्म- तीर्थंकरे गते ।
दानतीर्थंकरं देवाः सभिषेकमपूजयन् ।। हरिवंश पुराण, पर्व ६, श्लोक १६६ ॥
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