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चारित्र चक्रवर्ती उस समय सन् १९३० में लाउडस्पीकर नवीन ही वस्तु थी। एक दिन भाषण के समय उसका भी उपयोग किया गया था। आज उसका महत्व नहीं ज्ञात होता, किन्तु जब वह आरम्भ में सबके समक्ष आया था, तब लोग चकित थे, विज्ञान के इस अद्भुत आविष्कार पर, जिसने मन्दध्वनि वालों की बातों को भी सबके पास तक पहुँचाने में सहायता की। इसके पहले बड़ी सभाओं में वही वक्ता सफल हो पाता था, जिसकी आवाज जोरदार होती थी। अब इस यंत्र ने आवाजकृत विशेषता के महत्व को दूर कर दिया। इसके अधिक उपयोग हो जाने से यह भयंकर त्रासदायक भी बन गया है।
मुनि संघ का जनता पर बड़ा प्रभाव पड़ता था। बहुत-से मुसलमानों आदि ने मांस तथा मदिरा का त्याग किया था। चमार, भंगी आदि हरिजनों का महाराज ने सच्चा कल्याण किया था। बहुत से गरीब साधु महाराज के दर्शन को आते थे। महाराज प्रेममय बोली में समझाते थे, “भाई, जीवों की दया पालने से जीव सुखी होता है। दूसरे जीवों को मारकर खाना बड़ा पाप है। इससे ही जीव दुःखी रहता है।" महाराज के शब्दों का बड़ा प्रभाव होता था। तपश्चर्या से वाणी का प्रभाव बहुत अधिक हो जाता है। सैकड़ों-हजारों हरिजनों आदि लोगों ने शराब तथा मांस-सेवन का त्याग किया था तथा और भी व्रत लोग लेते थे। अग्नि में संतप्त किया गया स्वर्ण विशेष दीप्तिमान होता है, उसी प्रकार तपोग्नि द्वारा जीवन वाणी, विचार, मलिनता विमुक्त हो तेजोमय तथा दिव्यतापूर्ण होते हैं।
आचार्यश्री की भक्ति इतनी बढ़ रही थी कि लगभग सत्तर अस्सी चौके लगा करते थे। बिना शूद्र जल का आजीवन त्याग किए कोई आहार नहीं दे सकता था। आज की परिस्थिति में छोटे-से नियम का निर्वाह करना सरल काम नहीं है, फिर वह नियम देखने में छोटा है, किन्तु उसका पालन करना बड़े नगर में पर्याप्त मनोबल तथा कष्टसहिष्णुता के बिना नहीं बन सकता है। महाराज को आहार देने के अपूर्व सौभाग्य के आगे नियम की कठिनता कुछ भी नहीं दिखती थी। आज नियम लेने वाले कहते हैं कि इस छोटी-सी प्रतिज्ञा ने हमारा अशुद्ध भोजन से पिण्ड छुड़ा दिया अतः यह आत्मकल्याण के साथ-साथ शरीर की नीरोगता का भी कारण बन गई। इसने स्वावलंबी जीवन को भी प्रेरणा दी। राजनैतिक क्षेत्र में गांधीजी के कथनानुसार चरखा कातने से जैसे देशसेवा के क्षेत्र में झुकाव होता था, वैसे ही जल के नियम से यहाँ भी आध्यात्मिकता की ओर प्रगति होती थी।
देहली तथा पंजाब प्रान्त में यवनों के सम्पर्कवश अत्यधिक शिथिलाचार पाया जाता है। आचार्य संघ के प्रसाद से उसमें बहुत कुछ सुधार हुआ था।
वसन्तपंचमी को आचार्य महाराज का केशलोंच देखने को अपार जनसमुदाय इकट्ठा हुआ था। उस समय महान् संयमी के केशों की कीमत एक धर्मात्मा जौहरी ने ११०१) की नम्र भेंट देकर की उन्होंने उन केशों को बड़े समारोहपूर्वक यमुना नदी में क्षेपे।
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