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चारित्र चक्रवर्ती पानी छानने के महत्व को ध्यान में रखकर ही आचार्य महाराज ने उस भद्र महिला को पानी छानकर पीने को कहा था। आचार्य महाराज जैसी महनीय आत्मा छने जल को महत्व देते थे, इससे इस नियम का महत्व स्पष्ट हो जाता है। छनापानी तथा दिन का भोजन जैन परंपरा के वैज्ञानिक अंग
आजकल रात्रि भोज की बीमारी भी जैनसमाज में बड़े बड़े नगर निवासियों में बढ़ती जा रही है। जिस व्यक्ति के पास थोड़ी सी लक्ष्मी की कृपा हुई कि उसने रात्रि को भोजन करने में सगर्व कदम बढ़ाया। एक कोट्याधीश जैन श्रीमान् को मैंने देखा वे सब साधन संपन्न होते हुए भी रात्रि को भोजन करने लगे थे, और न करने वालों को तिरस्कार की दृष्टि से देखते थे। ऐसे लोगों को स्मरण रखना चाहिए कि थोड़े दिन पुण्य के फलस्वरूप लक्ष्मी का लाभ ले लें, पश्चात् नीच पयार्य में जा कर्मों की ठोकरें खानी पड़ेगी, अतः नरजन्म को सफल करने के हेतु पापाचरण से विमुख रहना हितकारी है।
एक श्रृंगाल ने रात्रि को भोजन छोड़ा था, उसके फल से उसने देव-पद प्राप्त किया था, तब मानव उस उस श्रृगाल से भी पिछड़ा रहा आवे, यह अच्छी बात नहीं दिखती है। गांधी जी रात्रि को भोजन नहीं करते थे, चाहे राष्ट्र हित का कितना ही बड़ा काम हो । एक बार काशी विश्वविद्यालय में वे भाषण दे रहे थे। संध्या समीप होने से पं. मदनमोहन मालवीय ने लोगों के समक्ष कहा था “हमारे भाई गांधी जी रात्रि को भोजन नहीं करते हैं, इससे सभा समाप्त की जाती है।"जो अत्यंत तुच्छ बातों के बहाने रात्रि भोजन करते हुए अपने जैन कुल के गौरव की परवाह नहीं करते हैं, उनको विवेक के प्रकाश में अपनी प्रवृत्ति को सुधारना चाहिए। प्रमुख जैन ही जब संस्कृति को विकृत करेंगे, तब उनका शुद्ध रूप कैसे रहेगा? भ्रांत धारणा __ कोई-कोई कहते हैं संस्कृति का खान पान से क्या सम्बन्ध है? इसके उत्तर में कहना होगा कि शुद्ध आचार-विचार का ही नाम तो संस्कृति है। पवित्र आचरण और पवित्र मनोवृत्ति से जीवन की मलिनता दूर होकर वह परिशुद्ध, परिष्कृत, परिमार्जित बनता है। इसे ही सुसंस्कृत जीवन कहते हैं । मीठी मीठी, लच्छेदार बातें बनाना संस्कृति नहीं है। वह तो पथिक को फंसाने वाली व्याघ्र की बात है जो कहता था “इदं सुवर्ण कंकण गृह्यताम्"किन्तु इस माधुर्य के अन्तस्तल में नैसर्गिक क्रूरता का भाव छिपा हुआ था। ___ अतः विचारों की निर्मलता के संपादनार्थ आहार की शुद्धि आवश्यक है, इसी से आचार्य महाराज जीवन के कल्याणार्थ उसका उपदेश देते थे और भद्रात्मा उनके उपदेश को स्वीकार करते थे।
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