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आगरा
प्रभावना
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राजाखेड़ा से चलकर संघ १३ फरवरी १६३० को आगरा पहुंचा। बड़ा शानदार स्वागत किया गया था । १५ फरवरी को बेलनगंज के मंदिरजी से रथोत्सव निकला था। आचार्य शांतिसागर महाराज अपने सप्त दिगम्बर शिष्यों सहित रथ के आगे-आगे थे। जुलूस कचेरीघाट, जुम्मा मस्जिद, जौहरी बाजार आदि मुख्य रास्तों पर से बड़े वैभव के साथ निकला था, कारण सोने-चाँदी का बहुमूल्य सामान होने से उसकी शोभा अधिक वृद्धिंगत हो गयी थी। हजारों आदमी 'जैनधर्म की जय, आचार्य शांतिसागर महाराज की जय' - घोष कर रहे थे। फाल्गुन वदी चौदस को मोतीकटरा में आचार्य महाराज का केशलोंच हुआ था। लगभग पन्द्रह हजार जनता इकट्ठी हुई थी ।
आगरा में जैन समाज की अच्छी संख्या है। इससे महाराज के उपदेश से बहुतों ने लाभ लिया। महाराज के असाधारण व्यक्तित्व के प्रभाव से कठिन से कठिन नियम लेना भी लोगों को सरल लगने लगता था । यह तो महाराज के पास आने पर अनुभव में आता था कि कड़ी प्रतिज्ञा लेने में उसकी कटुता नहीं दिखती थी। मेरा व्रत बड़ा है, मैं बड़ा व्रती हूँ, यह अहंकार नहीं होता था । महापुराण में लिखा है कि चक्रवर्ती भरतेश्वर षट्खंड की विजय करते हुए जब वृषभाचल पर्वत पर अपनी विजय प्रशस्ति लिखने गए तो उनका मान जाता रहा, वृषभाचल पर अगणित नामों से जैसे चक्रवर्ती का अंहकार दूर होता है, मन में मार्दवभाव जागता है, इसी प्रकार उग्र तपस्वी आचार्य महाराज को देखते ही बड़े- बड़े तपस्वियों का अंहकार दूर होता था, और उन्हें ऐसा लगता था, कि मैं तो संयम के शिशु वर्ग में हूँ। अभी तो मुझे बहुत मंजिल तय करनी है। अपने व्रत के बोझे के हल्केपन की कल्पना हो जाने से उसका भार नहीं लगता था। संभवतः यही मनोवैज्ञानिक कारण होगा, जो आचार्यश्री के समीप उपवासादि-व्रतों को ग्रहण कर पालन करने में भारीपन नहीं लगता था । व्यथा नहीं होती थी। उनकी अचल और स्थिर प्रकृति को देखकर मनुष्य अपने मन में सोचता था 'देखो ! इतना घोर तप करते हुए भी ये अडिग रहते हैं। मैं जरा-सा नियम लेकर भी क्या डिग जाऊँगा ? मैं भी मानव हूँ। गुरुदेव का आदर्श स्मरण करते हुए अवश्य प्रतिज्ञा पालन में उत्तीर्ण होऊंगा।' यह सोच कर बहुत लोगों ने महाराज के पास से विविध संयम ग्रहण किये थे। उनसे नियम लेने वाले बड़े सुखी देखे गये।
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संयम धारण की प्रेरणा
• डरकर चुप बैठने से जीवन के अमूल्य क्षण व्यतीत होते जाते हैं, और न जाने किस क्षण यमराज आकर गला दबा दे, अतः विषयी लोगों की चक्करदार बातों के भ्रम में न फंस कर संयमी जीवन की ओर सबको प्रवृत्त होना चाहिए। महाराज के जीवन द्वारा ही यह शिक्षा प्राप्त होती थी। उनके संपर्क में रहने वाले कई भाई पहले त्याग शून्य थे,
अब
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