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प्रभावना कटनी चातुर्मास
आषाढ़ सुदी तीज को संघ कटनी से चार मील दूरी पर स्थित चाका ग्राम पहुंच गया। वहाँ के स्कूल में संघ को ठहराया गया। महाराज के उपदेश से प्रभावित हो मुसलमान हेडमास्टर ने मांसाहार का त्याग कर दिया और भी बहुतों ने मांसाहार का त्याग किया था।
मध्याह्न की सामायिक के उपरांत कटनी के जैनसमाज का एक जुलूस, जिसमें हिन्दू तथा मुसलमान भी शामिल थे, आचार्य संघ के स्वागतार्थ आया।
बड़े हर्ष के साथ जुलूस ने नगर में प्रवेश किया। जिनमंदिरों की उन्होंने वंदना की। पश्चात् नवीन छात्रावास को आचार्यश्री ने अपने चरणों से पवित्र किया। इसी कारण उसे शांति-निकेतन यह अन्वर्थ नाम प्राप्त हुआ। २२ जून, सन् १९२८ को आचार्य महाराज तथा नेमिसागर महाराज का केशलोंच हुआ, पश्चात् भगवान् का पंचामृत अभिषेक हुआ तथा पूजन की गयी। आचार्य महाराज की भी पूजा की गयी। आचार्य महाराज का त्याग-धर्म पर मार्मिक उपदेश हुआ।
सम्मान
इसके पश्चात् दूसरे दिन तारीख २३ को सेठ गेंदनमलजी सपरिवार मुंबई वापिस चले गये। कटनी समाज ने संघपति का योग्य वस्त्रादि द्वारा सम्मान कर वात्सल्य भाव का परिचय दिया। उनको मानपत्र भी दिया था। संघपति ने जिस प्रकार आठ माह का समय गुरुसेवा में दिया, इसी प्रकार गुरुचरणों के भक्त दक्षिण के और भी भाई थे, वे सब अपने-अपने स्थान को चले गये। कारण अब उन्होंने देख लिया कि महाराज को उत्तर भारत की यात्रा कर धर्म की प्रभावना करना है और अब उत्तरप्रान्त के भाई गुरुसेवा का पवित्र उत्तरदायित्व उठाने को तैयार हैं, अतः अपने लौकिक कार्यों के हेतु उनको जाना पड़ा। उत्तर में प्रभावना
उत्तरभारत में सर्वप्रथम आचार्य शांतिसागर महाराज के संघ के चातुर्मास का सौभाग्य कटनी को प्राप्त हुआ। आचार्यश्री के जीवन को जिन्होंने निकट से देखा, उनका अंतःकरण उनके प्रति भक्तिपूर्ण बने बिना नहीं रहा। शिखरजी के महान् उत्सव में इतना अधिक जनसमुदाय था और उस विशाल भीड़ के कारण ऐसी स्थिति थी, कि आचार्यजी के जीवन के निकट निरीक्षण का सौभाग्य बहुत कम लोगों को मिला। वे तो महान् सन्त हैं, जिन्हें अपने जीवन का विज्ञापन कभी भी इष्ट नहीं रहा है, अतः सब सामान्य कीर्ति के सिवाय
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