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प्रभावना
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वातावरण से अप्रभावित हो आगमोक्त कथन
ऐसे अवसर पर जनता के प्रमाण-पत्र या प्रशंसा की तनिक भी परवाह न कर आगम के मार्ग का प्रतिपादन करना महापुरुषों का काम है। लघु आत्मा बाह्य वातावरण से प्रभावित होकर उस काम को ही करती है, जिसमें उसको प्रशंसा (Cheap Publicity) मिले। सत्पुरुष कष्ट सहते हुए भी न्याय के मार्ग पर चलना कल्याणप्रद मानते हैं।
अतएव आचार्य संघ के द्वारा लोककल्याण, सामाजिक सुव्यवस्था एवं सदाचार के रक्षणार्थ पश्चिम की पवन के विरुद्ध विधवा-विवाहादि के निषेध का जोरदार प्रचार किया जाता था। शील के पथ पर चलकर ही सती सीता, साध्वी चन्दना आदि नारी जाति के गौरव की निधि बनीं। उसी पथ पर चलने में मातृजाति का हित है। महाराज के संघ द्वारा व्यवहार और निश्चय दोनों धर्मों का उपदेश दिया जाता था। साधारण जनसमाज के लिए व्यवहार-चरित्र, शील, संयम, सदाचार का उपदेश दिया जाता था। तत्त्वज्ञों के लिए उच्च चर्चा की सामग्री गुरुदेव तथा संघ के ज्ञानी, अध्ययनशील, चिंतक साधुओं द्वारा प्राप्त होती थी।
जबलपुर बड़ा नगर है। जैनियों की संख्या उस समय लगभग पाँच-छह हजार थी। उनमें उच्चकोटि के विश्वविद्यालयों की उपाधिधारी भी अनेक व्यक्ति थे। वे लोग स्वतंत्र विचार तथा आचार को पसंद करने वाले होते हैं। उनके हितार्थचन्द्रसागर महाराज, वीरसागर महाराज आदि धर्म की मार्मिक देशना करते थे। आचार्यश्री की वाणी तो दुग्ध में से धृत के समान सार बात को कहती थी। महाराज की प्रकृति कम बोलने की, अधिक ध्यान, मनन, चितवन करने की रही है। विशेषज्ञों के आने पर वे सूक्ष्म चर्चा जी खोल कर करते थे, साधारण लोगों के समक्ष वे अपने शिष्यों द्वारा तत्त्वोपदेश दिलाते थे और बीच में कभी-कभी अपनी अमृत वाणी से अनुभव की मधुर चर्चा करते थे, जिनसे श्रोताओं का संशय टिक नहीं पाता था। सुलझे साधु
जो आचार्य महाराज के निकट आता था, उसे ज्ञात होता था कि वे अत्यन्त सुलझे हुए प्रशान्त, निस्पृह, श्रेष्ठ जीवन वाले चिंतक तथा अप्रतिम अहिंसक सन्त हैं। उनकी सारी प्रवृत्तियाँ अहिंसा के भाव से भूषित थी। कुछ लोग शांति सिंधु के समीप न आकर आदत से लाचार होने के कारण लोगों को भ्रमजाल में फंसाया करते थे, जैसे समवशरण के पास रहने वाले तीव्र मिथ्यात्वी जीव लोगों को कहते हैं, यह सब इन्द्रजाल है, यहाँ आपको नहीं जाना चाहिए। स्वभावो दुरतिक्रमः' स्वभाव का बदलना साधारण बात नहीं:
'नीम न मीठी होय खाओ जो घी अरु गुड़ से।'
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