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चारित्र चक्रवर्ती
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ओरसा ग्राम में दंश-मशक परीषह
आचार्य महाराज को वहां कष्ट न हो, इसलिए दमोह के सेठजी ने घर को साफ कराया था। महाराज के आने पर उन्होंने कहा, "महाराज, यह घर आपके लिए ही हमने साफ करवाया है ।” विशेष कर अपने निमित्त से उद्दिष्ट किये गये घर में ठहरने पर गृहस्थ द्वारा किये गये सावध कर्म का दोष इन सर्वसावद्य त्यागी मुनिराज पर आयगा । इससे महाराज ने उस घर को अपने ठहरने के अनुपयुक्त समझा, अतएव वे रात भर बाहर की जगह में ही ठहरे। दिगम्बर शरीर पर डांस मच्छरों की बाधा का अनुमान किया जा सकता है। जब एक मच्छर भी अपने दंश प्रहार और भनभनाहट से हमारी नींद में बाधा पहुंचा सकता है, तब अगणित डांस और मच्छर दिगम्बर शरीर को कितना न त्रास देते होंगे ? महाराज ने उस उपद्रव को साम्य-भाव से सहन किया। यह दिगम्बर मुनिश्री की श्रेष्ठ-चर्या है। इसमें जरा भी शिथिलाचरण को स्थान नहीं है। यही कारण है कि इस सिंह वृत्ति को धारण करने में जगत के बड़े-बड़े वीर डरते हैं। महावीर प्रभु के चरणों का असाधारण प्रसाद जिन महामानवों को प्राप्त हुआ है, वे ही ऐसे कठोर एवं भीषण कष्ट संकुल श्रमण जीवन को कर्म निर्जरा का अपूर्व कारण मान सहर्ष स्वीकार करते हैं। वे अपने हाथ से मच्छरों, डांसों को भगाते भी नहीं हैं, ऐसा करने से उनकी हिंसा होती है, अतएव वे डांस शरीर का खून चूसते रहे, और ये निर्विकार भाव से इस कष्ट को सहन करते रहे, मानों ये शरीर उनका न हो । वास्तव में भेद विज्ञान की ज्योति के बिना महाव्रती
जीवन यात्रा सानन्द नहीं हो सकती । भेद-विज्ञान के प्रकाश में शरीर को चैतन्य पिण्ड आत्मा से पूर्णतया पृथक अनुभव करने वाले तत्त्वदर्शी महात्मा के शरीर को बाधा आने पर भी संक्लेश नहीं होता। ऐसे विपत्ति के क्षणों में स्थिरता देखकर ही आत्मा की उच्चता का अवबोध होता है तथा यह ज्ञात होता है कि उनकी आत्मा अध्यात्म विद्या से प्रकाशित है । आजकल प्रमादमूर्ति शरीर की सर्व प्रकार से सेवा करने में प्रवीण विषयों के दास किन्तु आत्मा की चर्चा द्वारा स्वयं को भगवान् मानने वाले अध्यात्म विद्या के वेत्ता का अभिनव करने वालों का समुदाय यत्र-तत्र दिखाई पड़ता है। पीला पीतल असली स्वर्ण की महत्ता हीं प्राप्त करता है। यही स्थिति इन नकली आत्मवादियों की है।
यहाँ से चलकर बांसा ग्राम में संघ एक दिन ठहरा। वहाँ लगभग बीस घर श्रावकों के हैं। बहुत से अजैनों ने मांसादि के त्याग का नियम लिया । यही प्रतिज्ञा बरखेड़ा के ५०६० लोगों ने ली ।
गढ़ाकोटा
चार अप्रैल, सन् १९२६ को संघ गढ़ाकोटा पहुंचा। यहाँ जैनियों के लगभग ५० घर हैं। छह मन्दिर हैं। समाज धार्मिक है। लोगों ने बड़ी भक्ति दिखाई तथा गरुदेव के चरणों
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