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प्रभावना
२४२ अतः उन्होंने उसको मुनि दीक्षा नहीं दी। - इससे यह पता चल जाता है कि आचार्यश्री के पास से दीक्षा का पा लेना सफल जीवन का निश्चायक होता है। अंग्रेजी शिक्षा लेने कोई लन्दन जाता था और यदि उसके पास केम्ब्रिज या आक्सफोर्ड का प्रमाण-पत्र होता था, तो उसकी योग्यता के विषय में सन्देह नहीं किया जाता था, इसी प्रकार आचार्य महाराज से दीक्षा प्राप्त करने का जिस निकट-भव्य आत्मा को सौभाग्य मिलता था, उसके विषय में भी पूर्ण विश्वास उत्पन्न होता था।
सोनागिरि में जिन महानुभावों को निर्ग्रन्थ दीक्षा दी गयी, उन्होंने ऐलक के रूप में मुनिपद के लिए पर्याप्त पात्रता प्राप्त कर ली थी। जब आचार्य महाराज ने उनके जीवन को तपे सोने के समान निर्मल, पवित्र तथा योग्य पाया, तब सुवर्णसम जीवन वालों को सोनागिरि में ही श्रमण दीक्षा में संस्कारित किया। उन चारों मुनियों ने महाव्रती के रूप में अवर्णनीय स्वपर कल्याण किया। कुंथुसागरजी ने बड़े-बड़े राज्यों में जाकर कैसी धर्म प्रभावना की है, यह गुजरात के जैनियों से पूछो, अजैन बड़े अधिकारियों और विद्वानों से पूछो। आज भी उनकी पावन स्मृति लोक मानस में हरी-भरी है। कुन्थुसागरजी .
एक दिन आचार्य महाराज कुन्थुसागरजी के बारे में बताते थे, “जब यह पहले आया था, तब इसको कुछ शास्त्र का बोध नहीं था। धीरे-धीरे पढ़ने का योग लगाया। बुद्धि अच्छी थी। बहुत शीघ्र होशियार हो गया। संस्कृत में कविता करने लगा। भाषण देने लगा।"आज श्री कुन्थुसागरजी के सहसा असमय में जीवन प्रदीप बुझ जाने से प्रत्येक धार्मिक हृदय में मनोव्यथा पैदा होती है।
चन्द्रसागर महाराज का विशुद्ध चरित्र और आगम भक्ति को कौन भूल सकता है ? उनका भी स्वर्गवास धार्मिक समुदाय को संतापप्रद रहा। पायसागर महाराज ने दक्षिण में अपने सुमधुर भाषण तथा तत्त्व प्ररूपणा द्वारा हजारों जीवों का कल्याण किया। मुनि नेमिसागरजी महाराज कठोर तप करने में प्रसिद्ध रहे और उत्तर भारत तथा पंजाब प्रांत में उन्होंने धर्म प्रभावना की थी। अब चारों साधु स्वर्गीय निधि हो गये। उनका नर जन्म कृतार्थ हो गया। सोनागिरि का गौरव
सोनागिरि में दीक्षा लेने वाले चारों मुनियों का जीवन तपे हुए सोने के समान निकला और विपत्ति की कसौटी पर कसे जाने पर उनकी दीप्ति बढ़ी थी। वह घटी नहीं। ये चारों ही मुनि प्रारंभ से ही महान् नही थे। इनमें महानता का बीज था। ये उस सुवर्ण पाषाण के
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