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चारित्र चक्रवर्ती
बात निकल जाया करती है कि शास्त्र पुराने जमाने में लिखे गये हैं, आज की स्थिति दूसरी है। आज वे रचे जाते हैं तो उनका रूप दूसरा होता। ऐसी आगम के विषय में आचार्य महाराज की श्रद्धा नहीं थी। उनकी अविचल श्रद्धा थी कि जो कुछ आर्षोक्त आगम में लिखा है, वह सर्वज्ञ की वाणी होने से पूर्णतया सत्य, निर्दोष तथा अबाधित है। उच्च मार्दव भाव (आगम ही उनका प्राण)
आचार्य महाराज का प्राण आगम है, उसके विरुद्ध न वे एक शब्द बोलेंगे, और न विपरीत प्रवृत्ति ही करेंगे। इतने बड़े आचार्य की नम्रता की कोई सीमा है जब वे कहते थे, "यदि हमें एक बालक भी आगम लाकर बतायेगा, कि हमने भूल की है, तो हम तुरन्त अपनी भूल को सुधारेंगे।" एक बार महाराज ने कहा था, “यदि हम आगम के विरुद्ध बोलेंगे, तो हमें दोष लगेगा। इससे हम सदा आगम के अनुकूल ही कहेंगे।" सत्य महाव्रत की भावना में अनुवीचिभाषण अर्थात् आगम परम्परा के अनुसार कथन करने का जो उल्लेख आचार्य उमास्वामी ने किया है, वह आदेश उनके हृदय में सदा विद्यमान रहता था। इससे प्राण जाने पर भी वे आगम के विरुद्ध एक शब्द भी नहीं कहते थे। इस तत्त्व को न समझने वाले कोई-कोई सोचते थे महाराज दक्षिण के पंथ का प्रचार करते थे, किन्तु आचार्यश्री प्रान्त, पंथ आदि का मोह छोड़कर आगम की बातों का ही प्रचार करते थे। वे प्रांतीयता के बंधन से विमुक्त थे। मधुभक्षण में क्या दोष है ?
एक दिन मैंने पूछा, “महाराज, आजकल लोग मधु खाने की ओर उद्यत हो रहे हैं, क्योंकि उनका कथन है, कि अहिंसात्मक पद्धति से जो तैयार होता है, उसमें दोष नहीं है।"
महाराज ने कहा, “आगम में मधु को अगणित त्रस जीवों का पिण्ड कहा है, अतः उसके सेवन करने में महान् पाप है।"
मैंने कहा, “महाराज सन् १९३४ में मैं वर्धा आश्रम में गांधीजी से मिला था। उस समय वे करीब पाव भर शहद खाया करते थे। मैंने गांधीजी से कहा था कि आप अहिंसा के बारे में महावीर भगवान् के उपदेश को श्रेय देते हैं, उन्होंने अहिंसा के प्राथमिक आराधकों के लिये मांस, मद्य के साथ मधु को त्याज्य बताया है, अतः आप जैसे लब्धप्रतिष्ठित अहिंसा के भक्त यदि शहद सेवन करेंगे, तो आपके अनुयायी भी इस विषय में आपके अनुसार प्रवृत्ति करेंगे।" मक्खी का वमन मधु है, वमन भक्षण करना अयोग्य है
इस पर गांधीजी ने कहा था, "पुराने जमाने मे मधु निकालने की नवीन पद्धति का पता नहीं था, आज की पद्धति से निकाले गये मधु में कोई दोष नहीं दिखता है।"
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