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चारित्र चक्रवर्ती
आचार्य श्री अर्थात् सिद्धसमयसार मैंने (लेखक महोदय ने सल्लेखना की साधनारत ८२ वर्षीय आचार्य श्री से कहा) कहा-“महाराज! श्रेष्ठ तपस्यारूप यमसमाधि का महान् निश्चय करके आपने जगत् को चमत्कृत कर दिया है। आपका अनुपम सौभाग्य है। इस समय मैं आपकी सेवार्थ आया हूँ। शास्त्र सुनाने की आज्ञा हो या स्तोत्र पढ़ने आदि का आदेश हो, तो मैं सेवा करने को तैयार हूँ।"
महाराज बोले-“अब हमें शास्त्र नहीं चाहिए। जीवन भर सर्व शास्त्र सुने। खूब सुने, खूब पढ़े। इतने शास्त्र सुने कि कण्ठ भर चुका है। अब हमें शास्त्रों की जरूरत नहीं है। हमें आत्मा का चिन्तवन करना है। मैं इस विषय में स्वयं सावधान हूँ। हमें कोई भी सहायता नहीं चाहिए।"
-सल्लेखना, पूर्ण स्वावलम्बी, पृष्ठ ३६०
अंतिम संस्कार
धर्मसूर्य के अस्तंगत होने से व्यथित भव्य समुदाय ॐ सिद्धाय नम:, ॐ सिद्धाय नम: का उच्च स्वर से उच्चारण करता हुआ विमान के साथ बढ़ता जा रहा था। थोड़ी देर में विमान क्षेत्र के बाहर बनी हुई पाण्डुक शिला के पास लाया गया। पश्चात् पावन पर्वत की प्रदक्षिणा देता हुआ विमान पर्वत पर लाया गया।
महाराज का शरीर जब देखो ध्यान मुद्रा में ही लीन दिखता था। दो बजे दिन के समय पर्वत पर मानस्तम्भ के समीपवर्ती स्थान पर विमान रखा गया। वहाँ शास्त्रानुसार शरीर के अंतिम संस्कार, लगभग १५ हजार जनता के समक्ष कोल्हापुर जैन मठ के भट्टारक श्री लक्ष्मीसेन स्वामी ने कराया। आचार्यश्री के पावन शरीर के पृष्ठ भाग का दूध दही आदि के घड़ों से सेठ गोविंदजी के परिवार, घराने द्वारा अभिषेक हुआ।
___-सल्लेखना, ॐ सिद्धायनम: की उच्च ध्वनि, पृष्ठ
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