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चारित्र चक्रवर्ती सहज ही इतना जनकल्याण और जीव हित हो जाता है, जितना कभी भी कोई नहीं सोच सकता है।
ता. ११ जून १९२८ कोरीवासमाज ने संघ-भक्त-शिरोमणि परिवार को अपनी कृतज्ञता तथा अपने वात्सल्य भाव का प्रतीक एक सन्मान पत्र भेंट किया था। उसमें लिखा था कि यद्यपि आज तक अनेकोंदानवीरों ने लाखों रूपयों के द्वारा धर्मायतन, तीर्थरक्षा, धर्मशालाएं तथा शिक्षा प्रचारादि अनेक शुभ कार्य कर पुण्य एवं सुयश प्राप्त किया है, तथापि इस तरह अनुपम एवं अद्वितीय कार्य द्वारा अपनी कीर्ति को चिर स्मरणीय करने का श्रेय आपको ही है। आप ही की महती कृपा से हम अज्ञानांधकार में डूबते हुए अल्पज्ञों को आचार्य श्री शांतिसागर महाराज का संघ सहित दर्शन तथा सदुपदेश का लाभ हुआ है। मैहर राज्य
रीवा रियासत के पश्चात् संघ तारीख १६ जून को मैहरराज्य में पहुँचा।आगे पलासवाड़ा ग्राम मिला। उसके समीप एक गृहस्थ महाराज के समीप आया। उसने भक्तिपूर्वक इनको प्रणाम किया। वह समझता था, ये साधु महाराज हमारे धर्म के नागा बाबा सदृश होंगें, जो गाँजा, चिल्लम, तमाखू पीते हैं। हिन्दू नागा बाबा खानपान में यथेष्ठ प्रवृत्ति करते हैं। तमाखू पीते समय वे यह कहा करते हैं कि भगवान भी चिलम पीते थे। महाराज के प्रति हिन्दूभक्त का अनुराग
कृष्ण चले बैंकुठ को राधा पकड़ी बाँह ।
यहां तमाखू खाय लो वहाँ तमाखू नाँह ॥ कैसी-कैसी विचित्र कल्पना मोह वश जीव कर लिया करता है। इन्द्र ने ब्रम्हदेव से पूछा, “हे चतुरानन ! इस भूतल में श्रेष्ठ वस्तु क्या है ?" तब चारों मुखों से चतुरानन ने कहा, “तमाखू ही।" गांजा पीने की प्रार्थना
इस कलिकाल में सत्य का सूर्य मोह और मिथ्यात्व के मेघों से आच्छन्न हैं, अतः विषयवासनों की पुष्टि करने वाले जीव के हितप्रदर्शक तथा परम आराध्य माने जाते हैं। इसी धारणावश वह भक्त महाराज से बोला, “स्वामी जी! एक प्रार्थना है, अर्ज करूं?" महाराज ने कहा, “क्या कहना है, कहो?"
वह बोला, "भगवन् ! थोड़ा सा गाँजा मंगवा देता हूं, उसको पीने से आपका मन चंगा हो जायेगा।"
१. बिडौजा पुरा पृष्ठवान्पद्मयोनि धरित्रीतले सारभूतं किमस्ति ।
चतुर्भिः मुखैरित्यवोचद्विरंचि स्तमाखुस्तमाखुस्तमाखुस्माखुः ।।
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