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तीर्थाटन
१८५ पुष्पदंत शीतल श्रेयांस प्रभु मेरे । वासुपूज्य विमलनंत धरम जस उजेरे ॥ शांति कुंथु अर मल्लि मुनिसुव्रत केरे । नमि नेमि पार्श्वनाथ वीर धीर मेरे ॥ लेत नाम अष्टयाम छूटत भव फेरे ।
जन्म पाय जादुराय चरनन के चेरे ॥ प्रभु नाम स्मरण वेला में विविध गीतों के द्वारा वह धर्म महोत्सव सजीव दिखता था। प्रभात में गाया जाने वाला यह पद कितना सुन्दर है :
प्रात भयो सुमर देव पुण्य काल जात रे ॥ चूकत यह अवसर फिर पीछ पछतात रे ॥ टेक ॥ लाभ औ अलाभ दोय, मैट सके नाहि कोय, होनहार होय सोय, काहे सटपटात रे ॥ टेक॥ पुत्रादिक दूर टार, चित्ततें उतारि नार, नींदड़ी निवार के, ध्यान को भुलाव रे ॥ टेक॥ कान जे कुरंग जान, चंचल मन रुचि पिछान, याके वश आन, तेरो फलो खेत खात रे ॥ टेक॥ जगत राम प्रभु को नाम, जपो जो विचार काम,
सर्व सिद्ध होय काम, गुरुजी बतात रे ।। टेक॥ पर्वत पर जाने वाले यात्रियों के मुख से जिन स्तुति से पर्वत मुखरित होता हुआ जिनगुण-गान में प्रवृत्त सा दिखता था। कोई पारस प्रभु की भक्ति में यह पढ़ते थे -
सामलिया महाराज दूरहि से आये तेरे दर्शन कों ॥ टेक॥
दर्शन दीजै बाबा लागू थारे पाय, जनम जनम के पातक जाय । कन्नड़ प्रान्त वाले कन्नड़ में, महाराष्ट्र प्रान्त वाले मराठी में जिन स्तवन करते जाते थे, कोई संस्कृत में प्रभुवंदन पढ़ते थे। इस प्रकार विविध भाषाओं में जिनेन्द्र पुण्य नाम स्मरण सुनाई पड़ता था। वहाँ तो यह प्रतीत होता था कि लोगों के आगे उस समय धर्म संचय का ही कार्य मुख्यतम बन गया। बिना धर्ममय हुए कर्मों का बंधन कटेगाभी कैसे ? पूजन भी बड़े वैभव के साथ होती थी। अपार जन-समुदाय होने के कारण जन-रव विपुल था। हजारों व्यक्ति भिन्न-भिन्न स्थानों पर अष्टद्रव्य से पूजा करते थे। कोई साथ में रागरागनियों सहित पूजन पढ़ते थे। अष्टद्रव्य से पूजन करने को कोई-कोई लोग अर्वाचीन अर्थात् एकदम नई परंपरा कहते हैं। इस भ्रम का निराकरण तिलोयपण्णत्ति से हो जाता है, क्योंकिनंदीश्वर द्वीप में देवतालोग अष्टद्रव्यों से ही पूजा करते थे। यथा :एक अंजनगिरि,
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