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तीर्थाटन
१९१ आते ही जैन संस्कृति के ज्ञाता के चित्त में महावीर भगवान के विपुलाचल पर समवशरण आने की तथा धर्मामृत वर्षा की आगमोक्त बात स्मृति पथ में आए बिना नहीं रहती है।
तिलोयपण्णत्ति में लिखा है कि केवल ज्ञान उत्पन्न होने पर सभी जिनों का परमौदारिक शरीर पृथ्वी से पांच हजार धनुष ऊपर चला जाता है। उस समय सौधर्मेन्द्र भी आज्ञा से कुवेर विक्रिया शक्ति के द्वारा सभी तीर्थकरों के समवशरणों की विचित्र रूप से रचना करता है। उस समवशरण में चढ़ने के लिए आकाश में चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में ऊपर-ऊपर बीस हजार सुवर्णमय सीढ़ियां होती हैं। वे सीढ़ियाँ एक हाथ ऊंची और एक हाथ विस्तार युक्त होती हैं।' विपुलाचल की मधुर स्मृति
विपुलाचल पर चढ़ते ही मन में विविध प्रकार के विचार उत्पन्न होने लगते हैं। आगम के अनुसार समवशरण द्वादश सभा, सभानायक महाराज श्रेणिक, रानी चेलना, गौतम गणधर आदि का जो वर्णन पढ़ा है, सुना है, उसकी पवित्र और मधुर स्मृति आ जाती है और आत्मा को आनंद विभोर कर देती है।
इस पंचपहाड़ी पर जब आचार्य महाराज संघ सहित चढ़े तब बहुतों को स्मरण आया होगा कि इस पहाड़ी पर स्वयं चढ़ते समय विकट रास्ता होने से जब कष्ट होता है, तब शांतिसागर महाराज गृहस्थावस्था में यहाँ आए थे, उस समय उन्होंने किस प्रकार एक व्यक्ति को पीठ पर रखकर वात्सल्य भाव से पर्वत पर चढ़ाया होगा। उससे उनके महान् बल का अनुमान लोगों को बहुत स्पष्टता से हुआ होगा। धर्मात्मा दानी श्रावकों के पुण्य दान के फलस्वरूप सीढ़ियों का निर्माण होने से अब यात्रियों को पूर्ववत् कष्ट नहीं होता। वीर निर्वाणभूमि पावापुरी पहुँचना ___ राजगिरी की वंदना के पश्चात् संघ ने महावीर भगवान के निर्वाण से पुनीत पावापुरी की ओर प्रस्थान किया। जब पावापुरी का पुण्य स्थल समीप आया, तब वहाँ की प्राकृतिक शोभा मनको अपनी ओर आकर्षित करने लगती है। जलमंदिर में भीतर भगवान महावीर प्रभु के चरण चिह्न विराजमान हैं। तालाब लगभग आधा मील लम्बा तथा उतना ही चौड़ा होगा। उस सरोवर में सदा मनोहर सौरभ संपन्न कमल शोभायमान
१. इससे ज्ञात होता है कि भगवान का समवशरण बीस हजार हाथ ऊँचाई पर आकाश में रहता है। यह ५ मील ५ फलाँग तथा १०० गज प्रमाण होता है। इतनी ऊँचाई पर समवशरण होने से भव्य जीव ही वहाँ दर्शनार्थजाते होंगे। यह दोहा इस प्रसंग में उपयोगी है :
भाग्यहीन को नहिं मिलै भली वस्तु का योग । दाख पकै तब काग के होत कंठ में रोग ।।
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