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तीर्थाटन दूसरे को नहीं दिया, तब आपका कथन कैसा है कि यह सबको सुख का दाता है ?"
महाराज ने मेरी ओर देखकर पूछा-"तुम्हारा क्या अभिप्रायः है, स्पष्ट करो?" मैंने कहा-“महाराज ! इस जैनधर्म ने आपको गृह, वस्त्र, वैभव, कुटुम्ब आदि से पृथक् करा दिया। श्रीमन्त परिवार के मुख्य पुरुष होते हुए भी आपके पास कोई भी सामग्री नहीं है जिससे आप शरीर के कष्ट का निवारण कर सकें। इस जैन धर्म की शिक्षा के कारण आप आठ-दस दिन तक भी भूख और प्यास का कष्ट उठाते हैं। इस धर्म के कारण ही आप दंश, मशक नग्नता आदि के भयंकर कष्ट भोगते हैं। यदि आपने इस धर्म को न धारण किया होता, तो आप सब प्रकार सुखी रहते?" समाधान
महाराज ने कहा-“इस धर्म ने हमें अवर्णनीय निराकुलता दी है। इससे बड़ी शांति प्राप्त हुई है। बाह्य परिग्रह आदि से सुख पाने का भ्रम है। उनके त्याग से सच्चा आनन्द मिलता है। उपवास आदि हम इसलिए करते हैं कि पूर्व में बांधे गए कर्मों की निर्जरा हो जाये। अग्नि के ताप के बिना जैसे सुवर्ण शुद्ध नहीं होता उसी प्रकार तपश्चरण के बिना संचित कर्मों का नाश नहीं होता। व्रताचरण के द्वारा कर्मों का संवर होता है। और कष्ट सहन करने से पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा होती है। जैन धर्म ने हमें दुःख दिया यह समझना भूल है। इसने हमें बड़ा सुख दिया, बहुत शांति दी।" ___ महाराज ने कहा-“सुख के लिए कर्मों का बंध रुकना चाहिए। कर्मों के संवर का उपाय जिन भगवान ने चारित्र का पालन कहा है। पुराने बंधे कर्मों का नाश भी आवश्यक है। वह ऋण के समान है। जब जीव ने कर्जा लिया है, तब उसे चुकाना ही पड़ेगा, चाहे समता भाव से कर्मों का फल भोगो चाहे संक्लेशपूर्वक भोगो। भोगना पड़ेगा अवश्य । अतः हम कर्मों की निर्जरा के लिए कायक्लेश आदि तप करते हैं।" मोक्षपाहुड़ का यह कथन तपश्चरण का महत्व बताता है -
ध्रुवसिद्धिस्तीर्थंकरः चतुर्ज्ञानयुतः करोति तपश्चरणम् । __ज्ञात्वा ध्रुवं कुर्यात् तपश्चरणं ज्ञानयुक्तः अपि ॥६० ॥ निश्चित रूप से मुक्त होने वाले चार ज्ञान वाले तीर्थंकर तपश्चरण करते हैं यह ज्ञातकर ज्ञानी पुरुष को तपश्चरण करना चाहिए। बाह्य तप द्वारा अन्तरंग तप साध्य होता है। तीर्थंकर भगवान् बाह्य अन्तरंग तप करते हैं। शांति के बिना त्यागी नहीं
महाव्रतों के पालन से उनकी आत्मा को अवर्णनीय शांति है। एक दिन सन् १९५० में एक स्थानकवासी साधु महोदय आचार्य महाराज के पास गजपंथा तीर्थ पर आए।
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