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तीर्थाटन
. १८१ संज्ञी मनुष्य अत्यन्त गम्भीर होकर उस वज्रघोष गजेन्द्र के पुरुषार्थ के बारे में सोचे तथा अपनी निकृष्ट पापपंकलिप्त परिणति के साथ तुलना करे तो स्तुत्य कार्य होगा। कवि मानव से पूछता है
सुलझे पशु उपदेश सुन, सुलझे क्यों न पुमान ।
नाहरतें भए वीर जिन, गज पारस भगवान ॥ सिद्ध बनने वाले पार्श्वप्रभु यदि वंदनीय हैं, तो क्या गजराज की पर्याय में संयम पालने वाला वह जीव समादरणीय न होगा? धन्य है गजेन्द्र ! तुम्हारा व्रतानुराग स्पृहणीय है ।
जिस धर्म के प्रसाद से तिर्यंच पर्याय तक के जीवों का उद्धार हुआ, वे जैनी बने और अंत में जयशील होते हुए जिनेन्द्र सिद्ध परमात्मा बने, उस धर्म की शरण लेने वाला विवेकी मानव किस सिद्धि और सफलता को नहीं पायेगा? आज तो भगवान पार्श्वनाथ का नाम सचमुच में सम्पूर्ण सिद्धियों और सफलताओं को प्रदान करता है। उनका नाम धारण करने वाला पाषाण, पारस पाषाण बनकर लोह को सुवर्ण बनाता है, तो जो पुण्यात्मा विशुद्ध हृदय जीव उनका नाम विवेक पूर्वक लेता रहेगा, तो वह क्यों न कर्मों का नाश कर अविनाशी शांति को प्राप्त करेगा ? इस टोंक पर आचार्यपरमेष्ठी ने समस्त सिद्ध समूह का ज्ञान नेत्र द्वारा दर्शन किया व आराधना की। वे सिद्ध भगवान शाश्वतिक शांति के सागर हैं। देवाधिदेव
पार्श्वनाथ भगवान की टोंक में पूर्ण शान्ति तथा स्फूर्ति प्राप्त करने के पश्चात् महाराज ने पर्वत से उतरना प्रारंभ किया। उस समुन्नत टोंक पर चढ़ते और उतरते हुए मुनियों की शोभा बड़ी प्रिय लगती थी। उद्यान की शोभा पुष्पों से होती है, जलाशय का सौन्दर्य कमलों से होता है, गगन की शोभा चंद्र से होती है, इसी प्रकार आध्यात्मिक पुण्य भूमि की सुन्दरता महामुनियों से होती है। उस प्रकृति के भंडार शैलराज पर चलते हुए आचार्य महाराज की निर्ग्रन्थ मुद्रा उन्हें प्रकृति का अविच्छिन्न अंग सा बताती थी। दिगंबर मुद्रा प्रकृति प्रदत्त मुद्रा है।
ध्यान
___ अब प्रभात का सूर्य आकाश के मध्य में पहंच गया, इससे आचार्य शान्तिसागर महाराज एक योग्य स्थल पर आत्म ध्यान हेतु विराजमान हो गये। आज की सामायिक की निर्मलता और आनन्द का कौन वर्णन कर सकता है, जब कि उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती ? आज बीस तीर्थंकरों की निर्वाण भूमि की वंदना करके निर्वाण मुद्राधारी मुनिराज आत्मा और परमात्मा के स्वरूप के चिंतन में निमग्न हो गये है। आज की निर्मलता असाधारण है। समता अमृत से आत्मा को परितृप्त करने के पश्चात् उन मुनिनाथ ने पुनः मधुवन की ओर प्रस्थान किया। उस समय उनकी पीठ पर्वत की ओर थी किन्तु उनके
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