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चारित्र चक्रवर्ती
महाराज को दम घुटने से मूर्छा आ गई। उसके पूर्व में चिल्लाकर दरवाजा खुलवा लेना या बाहर जाने के लिए हो हल्ला करना उनकी आत्मनिष्ठा पूर्ण पद्धति के प्रतिकूल थी । अतः भीषण परिस्थिति आने पर प्रतीकार के स्थान में वे आत्म शक्तियों को केन्द्रित करके विपत्तियों का स्वागत करने में संलग्न हो जाते थे। उनके आध्यात्मिक कोष में विपत्तियों के प्रति नकार रूप शब्द का अभाव था । कुछ काल के पश्चात् जब द्वार खोला गया तब महाराज मूर्छा की स्थिति में पाए गये। ऐसी ही स्थिति समडोली ग्राम में भी हुई थी । ऐसी भीषणतम् स्थिति में उनमें घबड़ाहट का लेश मात्र भी नहीं था। उनमें मेरुवत स्थिरता थी। व्यथा को बिना मानसिक क्लेश के सहन किया
एक बार ज्येष्ठ की भीषण उष्णता के समय मध्याह्न की सामायिक के पश्चात् महाराज बड़वानी की ओर डामर की सड़क पर लगभग २०० मील पैदल गए थे। पृथ्वी साक्षात् अग्नि स्वरूप प्रतीत होती थी। उस समय वे यही सोचते थे कि कर्मों के संताप की अपेक्षा यह ताप कुछ भी नहीं है। अतः उसकी उपेक्षा करते हुए ये वासनाओं के विजेता आध्यात्मिक वीर शिरोमणि आगे बढ़ते जा रहे थे । इस उष्णता ने उनके चिर नीरोग शरीर के पीछे नेत्रों में व्याधि उत्पन्न कर दी। किन्तु नेत्रों की व्याधि के स्थान में आत्मा में लगी हुई कर्मों की व्याधि का उन्हें विशेष ध्यान था और इसलिए आत्मा की
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रोगिता के हेतु वे जिनवाणी का रसायन सेवन करते थे और आत्मा के पोषण को सतत तत्पर रहते थे । वे किसी भी मूल्य पर आत्मा को निर्बल नहीं बनाना चाहते थे । आत्मा
पोषण होता है तो वे मृत्यु को परम उपकारी बंधु मानते थे। उनकी प्रिय वस्तु वही है, जो आत्मा की शक्ति का संवर्धन कर उसे नीरोगिता प्रदान करती है। इसी दृष्टि की प्रधानतावश उन्होंने उत्तर प्रांत के विहार में भयंकर शीत तथा उष्णता की व्यथा को बिना मानसिक क्लेश के सहन किया था। वे परिषह विजेता महात्मा थे।
परम आध्यात्मिक आत्मदर्शी मुनीन्द्र
प्रतापगढ़ में महाराज का चातुर्मास था । उनके शरीर में चर्मरोग हो गया था । " शरीर व्याधि मंदिरम्,” उसमें रोगों के आने का कोई समय या मुहूर्त नहीं है। एक गुरुभक्त ने वाष्प (Steam) के प्रयोग द्वारा चिकित्सा की । वाष्प का वेग मस्तक को स्पर्श कर गया, तत्काल वे मूर्छित हो गए । दृष्टि फिर गई । जिह्वा बाहर निकल आई। सब लोग घबड़ा गए। कुछ समय बाद चैतन्य आया, किन्तु महाराज के मुख से कराहना, व्यथा या पीड़ा का सूचक कोई भी शब्द नहीं निकला था। उनकी भेद विज्ञान तथा वैराग्य की धारा इतनी सच्ची और सप्राण थी कि वे सोते, जागते, मूर्छित अवस्था में भी शरीर के प्रति ममता नहीं दिखाते थे । वे सच्चे परम आध्यात्मिक आत्मदर्शी मुनीन्द्र थे ।
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