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तीर्थाटन ने लिखा था- “इंग्लैड के तीसरे जार्ज का कहना है कि राजनीति तो गुंडो का पेशा है, शरीफ आदमियों का नहीं, यह तो सच है कि हम सब लोग जिन्होंने इस कीचड़ में हाथ सान लिए हैं, कभी-कभी इससे तंग आ जाते हैं और कभी तो बिल्कुल नफरत और खीझ होने लगती है। राजनीति के पेशे में नेता बनने के लिए किसी भी ट्रेनिंग की जरूरत नहीं है। हर ऐरा-गैरा अपने देश वासियों पर शासन करने के लिए समर्थ समझा जाता है। रोमारोला ने यह सुझाव पेश किया है कि युद्ध के खिलाफ आवाज उठाने के बजाय इन युद्ध छेड़ने वालों के खिलाफ आवाज उठाई जाय और इन राजनीतिक नेताओं को निर्वासित कर दिया जाय।" (संगम मासिक पत्र, पृ. ८४, दीपावली अंक, संवत् २००६) साधुओं के आलोचकों का कर्तव्य
कुछ समालोचना के शौकीन साधुओं को ही अपनी लोह लेखिनी के आक्रमण का केन्द्र बनाते समय यह नहीं विचारते कि समस्त व्यसनों में निपट अत्यन्त दुराचारी दुष्ट व्यक्ति के प्रति उनकेमन में वात्सल्य पैदा होता है, उपगूहन का भी भाव जगता है, स्थितिकरण की दृष्टि उत्पन्न होती है; किन्तु इस भीषण काल में असिधाराव्रत से भी भीतिप्रद दिगम्बर मुनि का जीवन बिताने वाली वीर आत्माओं के प्रति तनिक भी आत्मीयता का भाव उत्पन्न न होकर जन्म जन्मान्तर के शत्रु सदृश व्यवहार करने की कुबुद्धि उत्पन्न हो जाया करती है। साक्षरों की विपरीत प्रवृत्ति देखकर साधारण समाज अपना मार्ग निश्चय नहीं कर पाती है।' शिथिलाचारी साधु के प्रति क्या किया जाये ? ___ इसे ध्यान में रखकर मैंने एक बार आचार्यश्री से पूछा-“शिथिलाचरण वाले साधु के प्रति समाज को या समझदार व्यक्ति को कैसा व्यवहार रखना चाहिए ?"
महाराज ने कहा- “ऐसे साधु को एकान्त में समझाना चाहिए। उसका स्थितिकरण करना चाहिए।" ___ मैंने पूछा-“समझाने पर भी यदि उस व्यक्ति की प्रवृत्ति न बदले तब क्या कर्त्तव्य है ? पत्रों में उसके सम्बन्ध में समाचार छपाना चाहिए या नहीं ? ___ महाराज ने कहा-“समझाने से भी काम न चले, तो उसकी उपेक्षा करो, उपगूहन अंग का पालन करो, पत्रों में चर्चा चलने से धर्म की हंसी होने के साथ-साथ मार्गस्थ साधुओं के लिए भी अज्ञानी लोगों द्वारा बाधा उपस्थित की जाती है।" महाराज ने यह भी कहा कि "मुनि अत्यन्त निरपराधी है। मुनि के विरुद्ध दोष लगाने का भयंकर दुष्परिणाम
१. साक्षराः विपरीताश्चेद्राक्षसा एव केवलम्।
सरसः विपरीतश्चेत्सरसत्वं न मुंचति॥
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