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तीर्थाटन
१३६ को चाहिए कि वे इस मौके को जाने नदे। पुनः ऐसा लाभ न मिलेगा। संघ के साथ यात्रा करने वाले श्रावकों को धर्मोपदेश, सुपात्रदान, तीर्थवंदना, आदि अपूर्व लाभ होंगे। त्यागी ब्रह्मचारी जनों को विशेषता से सूचित किया जाता है कि वे संघ में आकर शामिल हों, जिससे संघ की शोभा बढ़े। इसी प्रकार विद्वानों को भी संघ के साथ शामिल होना चाहिए। यही हमारी प्रार्थना है।"
___- समाज सेवक पूनमचन्द घासीलाल जौहरी,
जौहरी बाजार, बम्बई नं. २ यह समाचार महत्वपूर्ण तो था ही साथ में एक नवीन बात का द्योतक था। उत्तर की ओर दिगम्बर मुनि संघ का विहार कई पीढ़ी से लोगों के कर्ण गोचर नहीं हुआ था, अतएव ऐसी शंका उत्पन्न होना अस्वाभाविक नहीं है कि स्वाधीन वृत्तिवाले मुनिराज का गृहस्थों के आश्रित संघ का बनकर चलने में उनकी स्वाधीनता की क्षति होगी अतः यह कार्य कैसे निर्दोष तथा उज्ज्वल समझा जायगा?
इसका समाधान यह है कि मुनिराज अपने मूल गुणों का बराबर पालन करते जाएं यह मुख्य बात है, उसमें दोष नहीं आना चाहिए। संघ में सम्मिलित होकर साधर्मीवर्ग के साथ विहार करने में रत्नत्रयधर्म की वृद्धि होती है, जिनधर्म की प्रभावना होती है, सामुदायिक पवित्र शक्ति के द्वारा बहुत जीवों का हित होता है, अतः इसमें बाधा की कल्पना अयोग्य है। श्रावकों के अधीन मुनिराज की प्रवृत्ति नहीं है। मुनिराज के सुभीते को देखकर ही भक्त, संघव्यवस्थापक सेवक के रूप में कार्य करते हैं। स्वामी के रूप में मुनिराज शोभित होते हैं। धर्मात्मा श्रावक तो स्वयं को उनके चरणों का दासानुदास सोचता है। जो गृहस्थ अपने को स्वामी समझकर अधिकार दिखाने का प्रयत्न करे, वह विचारवान श्रावक नहीं कहा जा सकता है। संघ संचालक गुरुचरणों का सेवक बनने में कृतार्थता मानता है। तीर्थयात्रा संघ
यह संघ की पद्धति नवीन नहीं है। शास्त्रों में इसके उदाहरण मिलते हैं। पार्श्वनाथ चरित्र में लिखा है कि महाराज अरविन्द ने राज्य का परित्याग करके मुनिपदधारण कर लिया था। अपनी आयु थोड़ी जानकार उन्होंने संघ को छोड़ कर आत्मशोधन का कार्य प्रारम्भ कर दिया। दयानिधि मुनिराज अरविन्द गुणयुक्त संघ को छोड़कर आत्मा को संस्कृत करने के लिए जिन भवनों की वंदना हेतु श्रीमन्त व्यापारियों के साथ गए। वे १. परिनिर्वृतं जिनेन्द्रविबुधा ह्यथाशु चागम्य।
देवतरक्तचंदनकालागुरुसुरभिगोशीर्षेः ॥१८॥ अग्नीद्राज्जिनदेहं मुकुटानल सुरभिधूपवरमाल्यैः। अभ्यर्च्य गणधरानपिगता दिवंखंचवनभवने ॥१६॥
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