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चारित्र चक्रवर्ती यह समाचार महत्वपूर्ण तो था ही साथ में एक नवीन बात का द्योतक था। उत्तर की ओर दिगम्बर मुनि संघ का विहार कई पीढ़ी से लोगों के कर्ण गोचर नहीं हुआ था, अतएव ऐसी शंका उत्पन्न होना अस्वाभाविक नहीं है कि स्वाधीन वृत्तिवाले मुनिराज का गृहस्थों के आश्रित संघ का बनकर चलने में उनकी स्वाधीनता की क्षति होगी अतः यह कार्य कैसे निर्दोष तथा उज्ज्वल समझा जायगा ?
इसका समाधान यह है कि मुनिराज अपने मूल गुणों का बराबर पालन करते जाएं यह मुख्य बात है, उसमें दोष नहीं आना चाहिए। संघ में सम्मिलित होकर साधर्मीवर्ग के साथ विहार करने में रत्नत्रयधर्म की वृद्धि होती है, जिनधर्म की प्रभावना होती है, सामुदायिक पवित्र शक्ति के द्वारा बहुत जीवों का हित होता है, अतः इसमें बाधा की कल्पना अयोग्य है। श्रावकों के अधीन मुनिराज की प्रवृत्ति नहीं है। मुनिराज के सुभीते को देखकर ही भक्त, संघव्यवस्थापक सेवक के रूप में कार्य करते हैं। स्वामी के रूप में मुनिराज शोभित होते हैं। धर्मात्मा श्रावक तो स्वयं को उनके चरणों का दासानुदास सोचता है। जो गृहस्थ अपने को स्वामी समझकर अधिकार दिखाने का प्रयत्न करे, वह विचारवान श्रावक नहीं कहा जा सकता है। संघ संचालक गुरुचरणों का सेवक बनने में कृतार्थता मानता है। तीर्थयात्रा संघ
यह संघ की पद्धति नवीन नहीं है। शास्त्रों में इसके उदाहरण मिलते हैं। पार्श्वनाथ चरित्र में लिखा है कि महाराज अरविन्द ने राज्य का परित्याग करके मुनिपदधारण कर लिया था। अपनी आयु थोड़ी जानकार उन्होंने संघ को छोड़ कर आत्मशोधन का कार्य प्रारम्भ कर दिया। दयानिधि मुनिराज अरविन्द गुणयुक्त संघ को छोड़कर आत्मा को संस्कृत करने के लिए जिन भवनों की वंदना हेतु श्रीमन्त व्यापारियों के साथ गए। वे मुनिराज पाप पंक विनाशन करने में समर्थ आगमानुसार धर्मकथा को विनयशील शशिगुप्त आदि वैश्यवरों को कहते थे । संघस्थ श्रावकों में मुख्य श्रेष्ठिवर शशिगुप्त थे।
पूर्व विदेह की पुंडरीकणी नगरी के वैश्यनायक ने सागरसेन मुनि राज के विहार करते समय साथ दिया था, ऐसा अशग कवि कृत महावीर चरित्र से ज्ञात होता है।
आज के युग में परमार्थ भावना का प्रदीप स्नेह का अभाव होने से बुझता जा रहा है। लोग स्वयं तीर्थयात्रा तथा धार्मिक प्रवृत्तियों के विषय में शैथिल्य संपन्न होते जा रहे है ऐसे समय पर एक व्यक्ति का विशाल धार्मिक संघ को शिखरजी तक ले जाने का निश्चय अवश्य आश्चर्यप्रद होगा। कोई यह सोचते होंगे कि संघ-संचालक अनेक करोड़ों के अधिपति होंगे तभी बड़े विशाल संघ चलाने के लिए उन्होंने रूपयों को पानी की तरह बहाया होगा, यह कोरी कल्पना ही है। संघ संचालक महानुभाव उदीयमान
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