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चारित्र चक्रवर्ती ऋषि ने इष्टोपदेश में लिखा है-"व्रताचरण द्वारा देवपर्याय का लाभ अच्छा है। असंयम के कारण नरक के कष्ट भोगना ठीक नहीं है। जो छाया में बैठा हुआ तथा जो धूप में बैठा हुआ अपने मित्रादि की प्रतीक्षा कर रहा है, उनमें बड़ा अन्तर है।"
जब तक वज्रवृषभनाराचसंहनन आदि निर्वाणोपयोगी पूर्ण सामग्री नहीं प्राप्त होती है, तब तक व्रताचरण की उपेक्षा कर नरकादि में संकट को सहन करने की अपेक्षा संयम की साधना द्वारा दिव्य पद प्राप्तकर निर्वाण के योग्य सामग्री को जुटाना विवेकी मानव का कर्तव्य होगा। संयमी जीवन हर दृष्टि से जीव का हितकारी है। यदि सम्यक्त्व है, तो वह सम्यक्त्व की प्राप्ति के योग्य समर्थ साधनों का सुयोग प्राप्त कराए बिना न रहेगा। अतः अविवेक से प्रेरित हो सम्यक्त्व की अत्यधिक भक्ति बता संयम का तिरस्कार करना, अपने हाथों अपने पैरों पर कुठाराघात करना है। संयम, व्रताचरण, जिनेन्द्रपूजन आदि के प्रति विद्वेष के भाव जगाना जीव को मीठी जहर की गोली खिलाने सदृश्य जघन्य कार्य है, अतएव आचार्य महाराज अपने विहार में सर्वत्र संयम का मोदक प्रत्येक प्राणी को देते थे (जो मोद अर्थात् आनंद देता है उसे मोदक कहते हैं)। ऐसा आनंददाई सामर्थ्य संयम में है। अजितेन्द्रिय, विषयाभिलाषी, भोगोन्मुख जीवन जगत में भी विनिंदित होता है। सम्यक्त्व की चर्चा के नाम पर विषयभोग की हलाहल पीना और पिलाना कैसे कल्याणकारी होगा? अतएव यहां वहां न भटककर आचार्यश्री के उपदेशानुसार आचरण करने में कल्याण की प्राप्ति है। __ भगवान जिनेद्रदेव की वाणी गणधर देव के द्वारा जिन द्वादशांगों के रूप में निबद्ध की गई है, उनमें प्रथम अंग आचार का प्रतिपादक आचारांग के नाम से प्रख्यात है। आत्मा विषयक शास्त्र अंतिम १२ वें अंग दृष्टिवाद के अंतर्गत् आत्मप्रवाद नामक पूर्व के रूप में बताया गया है। महापुराण में भगवजिनसेनाचार्य ने कहा है कि “गुरु के मुख से सर्व प्रथम श्रावकाचार का अध्ययन करें, पश्चात् आत्म विषयक शास्त्र तथा अन्य शास्त्रों का अभ्यास करें।" आगम के शब्द इस प्रकार हैं (महापुराण ४८,११८):
सूत्रमौपासिकं चास्य स्यादध्येयं गुरोर्मुखात् ।
विनयेन ततो न्यच्च शास्त्रमध्यात्मगोचरम् ॥ सत्य महाव्रती ऋषी प्रणीत वाणी वंदनीय होनी चाहिये।
परमात्मप्रकाश टीका से ज्ञात होता है कि तीर्थंकर भगवान से मुख्य प्रश्नकर्ता ने साठ हजार प्रश्नों में अंतिम प्रश्न आत्मा के विषय में पूछा था। इससे आत्मा की चर्चा बालक्रीड़ा के कन्दुक सदृश समझना या समझाना योग्य नहीं है। परमात्म प्रकाश टीका में महत्वपूर्ण शब्द ये हैं “सर्वागमप्रश्नानंतरं सर्वप्रकारोपादेयं शुद्धात्मानं पृच्छतीति" (पृ.२०)। ऐसे विवाद का निर्णय आचार्यश्री के इन अमूल्य शब्दों से होता है "सम्यक्त्व
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