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चारित्र चक्रवर्ती
पूर्ण हो गया। घर के कुटुम्बियों की चिन्ता छोड़ कर दूसरों की चिन्ता ले ली। जिसके मस्तक पर मुकुट विराजमान रहता है, वह बेचैन रहा करता है। यह संकट वीतराग आचार्य के शासन में नहीं है। संघ के साधुओं को सन्मार्ग में लगाते हुए भी आचार्य की उनके विषय में रंचमात्र भी आसक्ति नहीं है। विचारवान सहज ही सोच सकता है, जिस शरीर को योग्य आहार पानादि देते हुए भी जब वे अपनी चैतन्यज्योति को निरन्तर पृथक् अनुभव करते हैं, तब बाह्यसंपर्क में आने वालों के साथ मोह और ममत्व कैसे हो सकता है ? धर्म के परिवार की वृद्धि करते हुए रत्नत्रया का पोषण करने के कारण आचार्य परमेष्ठी तो अधिक विशुद्धता को प्राप्त करते हैं।
अब अपनी महान् तपश्चर्या के प्रसाद से सत्पुरुष का आकर्षण कर निर्ग्रथ मुनि श्री शांतिसागर स्वामी ने धर्म की गंगा बहाकर पुण्य तीर्थ का निर्माण कर संसार पूज्य आचार्य पद को प्राप्त कर लिया। आचार्य महाराज के व्यक्तित्व से प्रभावित होते हुए भी प्रत्याख्यानावरण कर्मोदय से जो सकल संयम के पथ पर चलने में असमर्थ थे, वे महान संयमी गुरुदेव की शरण में महिनों समय देकर अपने जीवन को पवित्र बनाने लगे ! आहरदान देकर पंचसूना क्रिया से उत्पन्न दोषों की शुद्धि में तत्पर रहने लगे। जो गुरुदेव
सान्निध्य में आता वह व्रताचरण रूपी प्रसाद को पाए बिना नहीं रहता था । इस प्रकार जहां देश में और बाहर शिथिलाचार था, अव्रती जीवों की वृद्धि हो रही थी, वहाँ आचार्यश्री के प्रसाद से बड़े से बड़े कठोर व्रतों को लेने का साहस स्त्री और पुरुषों के मन में जागृत होता था। इस प्रकार महाराज का धार्मिक संघ वेग से बढ़ता जाता था ।
इस दुषमा काल में विषयभोग की सरिता बह रही है। सब उसी में स्वेच्छा से डुबकी लगाते हैं। आगम भी कहता है इस काल की ऐसी ही प्रवृत्ति होगी, फिर भी आचार्यश्री का अपूर्व व्यक्तित्व असाधारण रूप से संयम के भावों को जगा रहा था। यह काल महान असंयम पूर्ण है, यह प्रत्येक के अनुभव गोचर हो रहा है। ऐसी ही सूचना महापुराणकार के कथनानुसार चक्रवर्ती भरतेश्वर के स्वप्न से भी प्राप्त हो चुकी थी ।
बात यह है कि जब भरतेश्वर को सोलह स्वप्न दिखे तब उन्होंने आदिनाथ प्रभु के समीप जाने का निश्चय किया। उन्होंने भगवान के पास जाकर जैसे ही प्रणाम किया, वैसे ही उन्हें विशुद्धतावश अवधिज्ञान प्राप्त हो गया, जैसा कि कहा गया है : भक्ति पूर्वक भगवान वृषभनाथ के चरण युगल को प्रणाम करते ही भरतेश्वर के विशुद्धियुक्त परिणामों के कारण अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया। चक्रवर्ती ने अपने स्वप्न भगवान के समक्ष भक्ति पूर्वक निवेदन किए, तब भगवान की दिव्यवाणी द्वारा उनका समाधान हुआ। चक्रवर्ती ने
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भक्त्या प्रणमतस्तस्य भगवत्पादपंकने ।
विशुद्धि परिणामांगमवधिज्ञानयुद्धयौ ॥ महापुराण ४१-२८ ॥
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