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याचार्व-पद
११८ शुष्क वृक्ष देखा था, उसके विषय में भगवान ने कहा था:
“पुसां स्त्रीणां च चारित्रच्युतिः शुष्कटुमेकपात्।" (महापुराण ४१-७६)
अर्थ : शुष्क वृक्ष दर्शन का यह परिणाम होगा कि पंचम काल में पुरुषों तथा स्त्रियों के चारित्र में शिथिलता पाई जायगी। इस प्रकार अधर्म की प्रवृत्ति ही युग का धर्म है, उसके विरुद्ध पौरुष की वृत्ति को जगासंयम की प्रवृत्ति का प्रसार आचार्यश्री के सातिशय पुण्य एवं प्रभाव को सूचित करता है। वास्तव में ससूक्तिमें पर्याप्त तथ्य है कि वीर पुरुष अपने पराक्रम के द्वारा नवीन युग का निर्माण कर सकते हैं।
पुण्यमूर्ति महाराज का संघ जिस ग्राम-नगर में पहुंचता वहांधर्म तथा आत्मकल्याण की दीपमालिकासी सज जाती थी। हर प्रकार की सुन्दर से सुन्दर शुभोपयोग की सामग्री महाराज के पुण्य से खिचकर वहां आ जाती थी। उत्कृष्ट शास्त्र चर्चा, तत्त्व प्रवचन, सुन्दर संगीत, कीर्तन आदि के द्वारा ऐसा लगता था कि महाराज के समीप आते ही पाप प्रवृत्तियों का स्वयं पलायन हो जाता था। कुंभोज चातुर्मास
विहार करते हुए आचार्य महाराज विक्रम संवत् १९८१, सम् १९२४ में चातुर्मास के लिए कुंभोज में ठहर गए। अब तो जहां महाराबकासंघरहे वा आनन्द की आश्चर्यप्रद धारा बहने लगती थी। जंगल में भी सचमुच में मंगल हो जाता था। ऐसे आनन्द से समय व्यतीत हुआ कि चार माह चार दिन की मह बीत गए।
आचार्य संघ अब कुंथलगिरि तीर्थ की ओरखामाहोगया। मार्ग में अनेक गृहस्थ साथ में हो गये, ताकि पात्र दान का पुण्य लाभते और महाराज की अपूर्व सेवा का सौभाग्य भी प्राप्त करें। जब संघ पंढरपुर पहुंचा तो वहां बहुत बझामसमुदाय एकत्रित हो गया था।
पंढरपुर की तरफ मुनि विहार का यह अवसर बहुत काल के बाद आया था। इससे भय होता था कि कहीं कोई अनिष्ट घट्नान हो बाय, कारण वहां अन्य संप्रदाय वालों की प्रबलता है। किन्तु महाराज के पुण्य प्रतापसे वहाँखूब प्रभावमा हुई और जैन धर्म का जयजयकार हो गया।
इसके अनंतर संघ कुंथलगिरि पहुंचा। देशभूगल कुलभूगल के निर्वाण स्थल की भक्ति पूर्वक वन्दना पूजा आदि के पश्चाद संघ सावरगांव पहुंचा। वहां प्रतिमा जी का वज्रलेप हुआ था। उसकी प्राण प्रतिष्ठा का समारंभ होना था। वह अतिशय क्षेत्र है। महाराज के पधारने से वहां का उत्सव भी समान हो गया था। रत्नत्रय संजीविनी दाता वैद्य
इसके पश्चात् संघसोलापुर आया। यहांजैनसमाबकेसमान_नेतरों ने भी आचार्यश्री
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