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वार्तालाप सम्यक् स्वरूप को नहीं समझ पाते हैं, जैसे अनेक दिशाओं में विचरण करने वाले निशाचर पक्षी सूर्य की विश्व प्रकाशन करने वाले सामर्थ्य को समझने में अक्षम रहते हैं।
अहिंसात्मक प्रहरी ___ एक दिन बारामती में नीरा नदी की नहर के तट पर से आचार्य महाराज जारहे थे। हम तथा प्रो.सुशील भी साथ थे। चलते-चलते महाराज वहाँ कुछ बालकों को स्नान में तत्पर देखकर रुक गये और प्रेम भरी बोली में कहने लगे कि यहाँ तुम लोगों को संभल कर रहना चाहिये। एक बार एक आदमी की मौत हो चुकी है। उनको जगाते हुए इन अहिंसात्मक प्रहरी ने आगे प्रस्थान किया। मार्ग में काँटा पड़ा था, उसे वहाँ से अलग करते हुए ये आगे बढ़े, ताकि वह कंटक दूसरों को पीड़ा दायक न बन जाये। व्रती बनाने के मूल में करुणा की भावना
यदि कोई निरंतर इनके पास रहकर इनकी करुणामयी प्रवृत्ति को देखकर पुस्तक लिखे, तो एक महाभारत सम विशाल ग्रंथ इनकी कारुण्यपूर्ण जीवनगाथा से पूर्ण होना
असंभव नहीं है । प्रयत्न करने पर भी कठोरता, क्रूरता, निर्दयता का दर्शन इनमें नहीं मिलेगा। हाँ ! दुर्भावनाओं, पापप्रवृत्तियों तथा कषायों के संहार करने में ये अवश्य अत्यंत निर्दयता पूर्वक प्रवृत्ति करते हुए, अरहंत की शरण में जाते हैं। वे अरहंत भगवान, जो कि उत्कृष्ट अहिंसा के अधिपति होते हुए, क्रोध, माया, मान, लोभ,मोहादि विकारों के विनाशक हैं। महाराज जीवों को जो व्रतादि का उपदेश देते हैं, प्रेरणा करते हैं, उसके मूल में यही करुणा तथा कल्याण करने की कामना है। मूल्यवान मनुष्य भव __एक दिन बारामती में सेठ गुलाबचंद खेमचंदजी सांगली ने पर्दूषण पर्व में आचार्यश्री के उपदेश तथा प्रेरणा से व्रत प्रतिमा ग्रहण करने का निश्चय किया। उस दिन के उपदेश में अनेक मार्मिक एवं महत्वपूर्ण बातें कहते हुए महाराज ने कहा था कि तुम लोगों की असंयमी वृत्ति देखकर हमारे मन में बड़ी दया आती है कि तुम लोग जीवन के इतने दिन व्यतीत हो जाने पर भी अपने कल्याण के विषय में जाग्रत नहीं होते हो। मनुष्य भव और उसका एक-एक क्षण कितना मूल्यवान है, यह नहीं विचारते। शास्त्रों में लिखा है कि जो विषयों का उपभोग किये बिना उनको त्यागते हैं, वे श्रेष्ठ हैं और जो भोगने के पश्चात् त्यागते हैं, वे मध्यम हैं, किन्तु जो विषयों को भोगते ही रहते हैं और छोड़ने का नाम नहीं लेते, वे अधम हैं । व्रती बनने में डरना नहीं चाहिये। व्रत में त्रुटि आने पर प्रायश्चित्त लेना चाहिये। मुनियों तक को प्रायचित्त कहा गया है। बड़ा दोष हो जाने पर भी उसका प्रायचित्त किया जाता है।
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