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दिगम्बर दीक्षा
१११ जब भी कोई बड़ा काम हो जाता था, तो वे उस का श्रेय अपने को न देकर, जिनेन्द्र भक्ति को देते थे। उनकी जिनेन्द्र भक्ति व वीतराग शासन पर श्रद्धा अद्भुत थी। आत्मबल भी असाधारण था। इन दो पतवारों के द्वारा उनकी जीवन नौका विपत्ति के मध्य से सकुशल आगे बढ़ रही थी। प्रतीत होता है कि स्वामी समंतभद्र के क्लेशाम्बुधै!ः पदे' इस कथन पर उनका प्रगाढ़ विश्वास था, जिसका कि अर्थ इस प्रकार है- जिनेन्द्र के चरण युगल दु:ख रूपी समुद्र में नौका का कार्य करते हैं अर्थात् विपत्ति काल में वीतराग प्रभु की भक्ति करने से यह जीव संकट रूपी समुद्र के पार पहुंच जाता है। रत्नत्रय ध्वजधारी श्रमणराज व सुयोग्य शिष्य संगम
जैसे-जैसे महाराज की तपश्चर्या द्वारा कर्मों की निर्जरा होती थी, वैसे-वैसे उनका आत्मबल और प्रभाव बढ़ता जाता था। कोन्नूर में सेठ खुशालचन्दजी पहाड़े तथा ब्र. हीरालालजी श्रमणबेलगोला जाते हुए रास्ते में इन तपोमूर्ति के दर्शन निमित्त रुक गये।
आठ दिन तक इनके जीवन का निरीक्षण करते रहे। उस सत्समागम की सुखद स्मृति स्वरूप दोनों सत्पुरुषों ने सुस्वादु आहार का आजीवन त्याग करके, नीरस जीवन का नियम ले लिया। श्री पहाड़े कांग्रेस के प्रभावशाली कार्यकर्ता थे। वह समय १९२३ का था, जबकि सारे देश में गान्धीजी के द्वारा संचालित अहिंसात्मक असहयोग द्वारा लोक जागृति से अंग्रेजी शासन कांप रहा था। उस समय सारे देश के साथ लोकनेता पहाड़ेजी तिरंगे झंडे को प्रणाम करते हुए पढ़ा करते थे कि “इसकी शान न जाने पाए, चाहे जान भले ही जावे।" जब रत्नत्रय ध्वजधारी महाराज के समीप में आये, तब उनका हृदय बोला कि “तुम किस जड़ ध्वज के पीछे जान देने को दौड़ते हो, तुम्हारा सच्चा कल्याण इन मुनिनाथजी की शरण में आ, रत्नत्रय ध्वज को प्रणाम करने में है। यह रत्नत्रय ध्वज विश्वविजयी है। उसे धारण करने वाला प्राणी त्रिलोकीनाथ बनता है। ऐसे आत्म ध्वज की आन के लिये जान पर खेलना हितकारी होगा।"
दोनों का हृदय इस महान् आत्मचुम्बक से खिंच गया। हृदय में यही निश्चय होता था कि शांति-सिन्धु के पास से कुछ रत्न अवश्य लेना चाहिये। अंत:करण में ऐसी भावना होती थी कि ऐसे गुणरत्नाकर का सानिध्य छोड़ दूसरी जगह भटकना अच्छा नहीं है। फिर भी भगवान बाहुबली की वंदना के लिये निकले हुये ये होनहार श्रावक युगल रवाना हो गये। भगवान बाहुबली की वीतरागता से भरी सप्राण सी प्रतीत होने वाली मूर्ति ने इन्हें अपूर्व प्रकाश दिया। राग का बंधन काटने की समुचित प्रेरणा प्रदान की। तीर्थयात्रा से लौटने के बाद उनका मन मधुकर महाराज के चरण कमलों के सौरभ
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