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दिगम्बर दीक्षा धारण करते ही ये संयत हुए और इन्होंने सर्वप्रथम अप्रमत्तसंयतगुणस्थान पर आरोहण किया, कारण देशसंयमी जब महाव्रत धारण करता है, तब भावों में अद्भुत निर्मलता होने से वह छठवें के स्थान पर सातवें गुणस्थान को प्राप्त करता है। पश्चात् अंतर्मुहूर्त के परिणामों में कुछ प्रमत्तपना संज्वलन कषायजन्य आता है। वह भी अंतर्मुहूर्त रहता है
और फिर निर्मलता अप्रमत्त स्थिति को प्राप्त कराती है। ___ गोम्मटसार कर्मकाण्ड में लिखा है-मिथ्यात्व गुणस्थान वाला सासादन तथा प्रमत्तगुणस्थान को छोड़कर शेष अप्रमत्त पर्यन्त चार स्थानों को प्राप्त होता है। सासादन गुणस्थान वाला मिथ्यात्व में ही गिरता है। मिश्रगुणस्थान वाला या तो चतुर्थ गुणस्थान को प्राप्त करता है या पतित होकर मिथ्यात्वी होता है। अविरत सम्यक्त्वी तथा देश संयमी प्रमत्तगुणस्थान को छोड़कर अप्रमत्तगुणस्थान तक जाते हैं। प्रमत्तगुणस्थान वाला नीचे के पाँच स्थानों को और आगे के अप्रमत्त रूप स्थान को इस प्रकार ६ स्थानों को प्राप्त करता है। तथा अप्रमत्त गुणस्थान वाला छठवें गुणस्थान को प्राप्त करता है। सच्चे निर्ग्रन्थ बनें
अब शांतिसागर महाराज की मुद्रा और तीर्थंकरों की जिन मुद्रा में रंच मात्र भी अंतर नहीं है। वस्त्र, वैभव, परिग्रह के कारण ही मानव मानव में भेद की गहरी खाई खड़ी होती है; किन्तु दिगंबरत्व सच्चा साम्य उत्पन्न कर देता है। अब इनको निर्ग्रन्थ कहने लगे, इसका कारण देवसेन स्वामी भावसंग्रह' में इस प्रकार बताते हैं-“सर्वसंग विनिर्मुक्त होने के कारण वृषभ जिनेन्द्र निर्ग्रन्थ थे। उन्होंने अपनी वाणी के द्वारा निर्ग्रन्थ मार्ग का उपदेश दिया। उनके मार्ग में लगने वाले सभी निर्ग्रन्थ महर्षि होते हैं।" परिग्रह को धारण करने वाला उनके मार्ग में पूर्णतया लगा हुआ निर्ग्रन्थ नहीं माना जाता है। परिग्रह के धारण करते हुए पूर्ण रत्नत्रय का पालन नहीं बनता है। ज्वर-प्रकोप
अब निर्ग्रन्थ मुनि बन इन्होंने अपने विहार द्वारा जीवों के कल्याण के साथ-साथ आत्मा का भी कल्याण बड़े वेग से प्रारंभ किया। तपश्चर्या से चिरसंचित कर्मों को उदयावलि में प्रविष्ट करा के तपोधन निर्जरा किया करते हैं। प्रतीत होता है कि इनकी तपःसाधना द्वारा असाता की उदीरणा आरंभ हो गई थी। यरनाल में दूषित जल हो जाने से बीमारी फैल गई। उस रोग से महाराज का शरीर भी आक्रान्त हो गया। अन्य तपस्वी भी बीमार पड़ गये। भक्त श्रावकों ने इनको नसलापुर लाकर खूब वैयावृत्ति व सेवा की। __एक माह के ज्वर ने शरीर को अत्यधिक क्षीण कर दिया। आहार के लिये जाने का भी सामर्थ्य न रहा। उस विकट स्थिति में भी ये धर्म ध्यान में प्रवीण रहे आए। उस समय इन्होंने आर्तध्यान को तनिक भी स्थान न दिया था।
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