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चारित्र चक्रवर्ती आत्मा के कोई रोग नहीं है। शरीर रोगी है, जब असाता का विपाक मन्द होगा, तब रोग की उपशांति होगी, ये सुविचार ही उस समय इनके लिये औषधि रूप थे। इनका धैर्य अपार था। देखने वाले आश्चर्य में पड़ जाते थे, जैन मुनि की चर्या कितनी महान् होती है। गोचरी करने का सामर्थ्य नहीं है, तो आहार ग्रहण नहीं करेंगे। दूसरों की बात ऐसी नहीं है। वहाँ तो जहाँ भी, जब भी, जो कोई भी, जो कुछ भी दे दे, दीन बनकर ले लेते हैं। इनकी वृत्ति सिंहसदृश पराक्रम पूर्ण थी। धीरे धीरे असाता का वेग कम हुआ, प्रकृति कुछ सुधरी। कोगनोली में चातुर्मास
चातुर्मास निकट देखकर विहार करते हुए कोगनोली पधारे और ग्राम के बाहर आधा मील की दूरी पर स्थित गुफा में विश्राम किया। वहाँ वर्षा की प्रचुरता से इनकी दिगंबर देह को बहुत बाधा आई, किन्तु इनको आपदा विचलित न कर सकी। बात यह है कि अब वे सामान्य मानव नहीं थे। जब सामान्य गृहस्थ की स्थिति में थे, तब भी इनमें अपूर्व ज्ञान
और वैराग्य था, निष्प्रहता और निर्ममता थी। अब तो मुनि वृत्ति धारण कर कर्मों के साथ इन्होंने सीधा युद्ध आरंभ कर दिया था। अत: अब वे एक पराक्रमी योद्धा के समान विपत्तियों के आने पर म्लान मुख या दीनवदन नहीं होते थे। विपत्ति आने पर उसे दूर करने को बाह्य प्रतिकार ये नहीं करते थे। जैसे प्राकृतिक चिकित्सा (Nature cure) में विश्वास रखने वाले रोग आने पर औषधि के सेवन से बचते हैं, कारण उनका विश्वास रहता है कि प्रकृति स्वयं विकारों के शमन होने पर निरोगता का वरदान देती है, इसी प्रकार ये मुनिराज प्रकृति की गोद में यथाजात शिशु के रूप में रहते हुए, उसी मुद्रा को धारण कर प्राकृतिक पद्धति द्वारा संकटों का उपाय करते थे। ये शांत भाव से बड़े-बड़े संकटों को सहन करते हैं और यह सोचते थे कि जब तक कर्म का उदय है तब तक फल भोगना अनिवार्य है। जिनेन्द्र नाम स्मरण तथा आत्म गुण चिन्तन प्रधान विशुद्ध भावना रूप संजीवनी सदा लेते रहते थे, जिससे कर्मों का वेग कम होते जाता था। विपत्ति के समय निर्ग्रन्थ मुनिराज प्राकृतिक पद्धति द्वारा आत्मा के रोगों को दूर करते थे। पागल द्वारा उपसर्ग
कोगनोली की गुफा में ये ध्यान करते थे। एक रात्रि को ग्राम से एक पागल वहाँ आया। पहले उसने इनसे भोजन मांगा। इनको मौन देख वह हल्ला मचाने लगा। पश्चात् गुफा के पास रखी ईटों की राशी को फेंककर उपद्रव करता रहा, किन्तु शांति के सागर के भावों में विकार की एक लहर भी नहीं आई। दृढ़ता पूर्वक ध्यान करते रहे। अंत में पागल उपद्रव करते-करते स्वयं थक गया। इससे वहाँ से चला गया। दुष्ट प्रसंग
महाराज कोगनोली की गुफा में रहा करते थे। आहार के लिये वे सवेरे योग्य काल में
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