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दिगम्बर दीक्षा विवेक नेत्रों को नष्ट कर देने से दर्शनमोहनीय का दास हुआ जीव सुसंस्कृत आत्मा के वैभव और महत्ता को क्या समझे? वह तो कूपमण्डूक के समान शांति के सिंधु की गंभीरता और विशालता की बात ही नहीं मानेगा। बस, रत्नाकर के पास से उस दिन उपरोक्त दो रत्न मिले और उनकी सामायिक का समय हो गया।
महाराजजी आत्म चिंतन में निमग्न हो गये। हमें बार-बार महाराज के श्रीमुख से सुनी हुई बात का स्मरण आता रहा। चित्त यह सोचता था कि आज के युग में इतनी बलशाली आत्मा का पाया जाना यथार्थ में बड़े आश्चर्य की बात है। ___ मैं अपने को भी धन्य सोचता था, जो गुरुदेव की दया के कारण उनके दर्शन के साथ, ऐसी महत्व की बातें उनके ही द्वारा जान सका।
मुनिपद धारण करने के पूर्व ही भयंकर कष्टों के द्वारा महाराज की परीक्षा प्रारंभ हो गई थी और निर्ग्रन्थ बनने के बाद उसका विचित्र वेग यदाकदा दृष्टिगोचर हो जाता था। पहले महाराज ने बहुत समय तक दूध और चावल का ही आहार रख, शेष पदार्थों का त्याग कर दिया था। इन्द्रियों का दमन करना आवश्यक था। शरीर अत्यंत बलवान था। बाल्यकाल से निर्दोष ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने से इनका शारीरिक बल तो और भी वर्द्धमान हो रहा था। महाव्रती बनने के बाद इन्हें आत्मा के बल की आवश्यकता थी। शरीर को बलवान बना आत्मा को दुर्बल करने की बात इन्हें जहर सी लगती थी। हाँ! आत्मा को बलवान बनाने में यदि काया क्षीण हो जाती है, तो कोई चिन्ता की बात नहीं है। इससे ये बहुत उपवास किया करते थे, जिससे इंद्रिय रूपी हाथी मस्त न हो और इनके ज्ञानांकुश के अधीन रहा आये। इनके चित्त में यह सत्य प्रतिष्ठित था (१६, इष्टोपदेश):
यजीवस्योपकाराय तद्देहस्यापकारकम् ।
यद्देहस्योपकाराय तज्जीवस्यापकारकम् ॥ अर्थ : जो उपवासादि आत्मा के कल्याणकारी हैं, वे शरीर के लिए क्षतिप्रद हैं। जो शरीर को पोषण प्रदान करते हैं, वे पुष्ट आहारादि आत्मा को अहितप्रद हैं।
एक दिन पूज्य श्री १०८ नेमिसागर जी महाराज से मैंने पूछा, “महाराज ! कृपा कर गुरुदेव की कुछ विशेष बातें बताइये, जो आपने देखी और आपके अनुभव में आयी हों। आप सदृश महाव्रती मुनिराज की वाणी अन्यूनमनतिरिक्त होगी।"
उन्होंने कहा, “शास्त्रों में जैसा चारित्र आचार्यों के लिये कहा गया है, वैसा ही चारित्र मैंने महाराज में पाया है। वे हमेशा धारणा-पारणा करते हैं, बीच में दो, तीन, चार उपवास आदि करना उनकी साधारण वृत्ति रही है।"
उन्होंने यह भी कहा, “भगवान वृषभनाथ स्वामी ने जो धर्म के विषय में जो बातें कही हैं, उन पर उनका अटल विश्वास, महान् श्रद्धा तथा प्रगाढ़ भक्ति रही है। उनकी
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