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चारित्र चक्रवर्ती ऐसे अलिप्त होकर देख रहे थे, मानो सांख्य दर्शन का पुष्कर पलाशवत् निर्लिप्तपुरुष प्रकृति की लीला देख रहा हो। यदि कोई इस भीषण स्थिति का मनोवैज्ञानिक दृष्टि से गहरे रूप में विचार करे, तो ज्ञात होगा कि इस नरक तुल्य व्यथा को स्वाधीन वृत्ति वाले योगिराज शांतिसागरजी निर्ग्रन्थ एकान्त स्थल में सहन करते रहे, तो उनकी आत्मा कितनी परिष्कृत, सुसंस्कृत वैराग्य तथा भेद विज्ञान के भाव से परिपूर्ण नहीं होगी? सर्पराज शरीर में लिपटा था। वह मृत्युराज का बंधुथा, यही भय था, किन्तु उसने कोई पीड़ा नहीं दी थी, किन्तु इन छोटी चींटियों ने पीड़ा देने में सर्पराज को मात कर दियाथा। इसी विषय का शांत अंतःकरण से अनुमान भर किया जा सकता है किन्तु जिस असहनीय और अवर्णनीय वेदना को महाराज ने समताभाव पूर्वक सहन किया था, उसे कहा नहीं जा सकता।
जब यह उपसर्ग होरहा था तब रात्रि के उत्तरार्द्ध में उस मंदिर के पुजारी को स्वप्न आया कि महाराज को बड़ा भारी कष्ट हो रहा है। वह एकदम घबड़ाकर उठा, किन्तु उस भयंकर स्थान में रात्रि को जाने की उसकी हिम्मत नहीं होती थी। कारण वहाँ शेर का विशेष भय था। उसने अपने साथी दूसरे जैन बंधु से स्वप्न की बात सुनाकर वहाँ चलने को कहा, किन्तु भय व प्रमादवश उसने उस बात पर ध्यान नहीं दिया। रात्रिभर निर्ग्रन्थराज की देह पर निर्मम हो छोटी-सी चींटियों ने जो महान् उपद्रव किया था, उसको प्रकाश में लाने हेतु ही मानो सूर्य ने उदित हो प्रकाश पहुँचाया। लोग वहां जाकर देखते हैं, तो उनके नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी, कारण महाराज के शरीर के गुह्म भाग से रक्त की धारा निकल रही थी और शरीर सूजा हुआ था तथा फिर भी चींटियाँ शरीर को खाने के उद्योग में पराक्रम दिखा रही थी।
लोगों ने दूसरी जगह शक्कर डालकर धीरे-धीरे उनको अलग किया, पश्चात्, गुरुदेव की योग्य वैयावृत्ति की। इस उपसर्ग का जिसने प्रत्यक्ष हाल देखा, उनकी आँखों से अश्रु आये बिना न रहे। सर्वत्र इस उपसर्ग की चर्चा पहुँची। लोगों ने गुरुदेव को प्रणाम किया और उनके मुख से यह शब्द गूंज रहे थे, धन्य है योगिराज! आप सदृश जितेन्द्रिय तपस्वी संसार में हमने नहीं देखा। आपको हम सब का अनंत प्रणाम हो। भव-भव में आप समान गुरु का दर्शन तथा सेवा का सौभाग्य प्राप्त हो।
किन्तु महाराज की स्थिति विचित्र थी। उन्हें पृथक्त्व भावना के प्रकाश में ऐसा लगता था, मानों जिस शरीर को पीड़ा हुई थी, वह शांतिसागरजी महाराज का शरीर न था। वे तो ज्ञान शरीरी थे। यथार्थ में आज के परिग्रह के पीछे उन्मत्त तथा भौतिक विज्ञान द्वारा प्रदत्त प्राणहीन वस्तुओं की पूजा करने वाला जगत् इन आध्यात्मिक निधियों की महत्ता क्या समझे ? जड़ का सेवक तथा भक्त आत्मा की गरिमा को क्या समझे ? और समझे भी कैसे ? जन्मान्ध दुग्ध की धवलता को क्या जाने ? अनादि से मोह के द्वारा
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