________________
१८
चारित्र चक्रवर्ती हुआ था, किन्तु अपने निर्मल अनुभव के आधार पर वे जो बात कहते थे, उसकी समर्थक सामग्री शास्त्रों में मिल जाती थी। इस प्रकार उनका अनुभव सत्य के स्वरूप का प्रतिपादन करता था। उनकी मुद्रा पर वैराग्य का भाव सर्वदा अंकित पाया जाता था। वे साम्यवाद के भंडार रहे हैं। उनमें भक्त पर तोष और शत्रु पर रोष नहीं पाया जाता था। जीवन द्वारा शिक्षण
आचार्य बनने पर शिष्यों को सतपथ पर चलने के लिये उन्हें आदेश देने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। उनका उज्ज्वल जीवन सबको प्रकाश प्रदान करता था। अपने शिष्यों के प्रति शासन कार्य में कभी भी पक्षपात, अन्याय अथवा अनीति का लवलेश भी मैंने उनमें नहीं देख। संघ का सदा अनुग्रह करने के साथ वे आत्मध्यान, शास्त्र-अध्ययन आदि आवश्यक कायों में सतत सजग रहते थे। आठ-आठ, दसदस उपवास करते हुए भी हमने उन्हें सदा स्थिर और धर्मध्यान में तत्पर देखा है। आहारदान में चतुर व्यक्ति द्वारा दक्षता देखकर वे प्रसन्न नहीं होते थे और न अज्ञ व्यक्ति द्वारा लंबे-लंबे उपवासों के होते हुए भी प्रकृति के प्रतिकूल पदार्थो को प्रदान किये जाने के कारण क्षुब्ध होते थे। प्रत्येक स्थिति में वे अपनी वीतरागता का संतुलन बनाये रखते थे। __ जब आचार्य महाराज का संघ उत्तर की ओर निकला था तब अनेक राजा महाराजा तथा उच्च राज्याधिकारी उनके चरणों को भक्ति, श्रद्धा और प्रेमपूर्वक प्रणाम करते थे। उस समय उनकी प्रतिभापूर्ण मृदुल भाषा को सुनते ही प्रत्येक व्यक्ति उनके चरणों का अनन्य अनुरागी बन जाता था। उपसर्ग
जब लगभग सन् १९३० में आचार्यश्री धौलपुर राज्य के राजाखेड़ा ग्राम में पधारे, तब धर्म विद्वेषी छिद्दी ब्राह्मण ने बहुत से सशस्त्र गुंडों को साथ ले तलवार से उनके प्राण लेने का प्रयत्न किया था, किन्तु उनके तपोबल से विपत्ति की घटा शीघ्र ही दूर हो गई थी। उस संकट के समय महाराज में उतनी ही स्थिरता थी, जितनी कि अपनी भक्तमण्डली पर उनसे घिरे रहने पर होती है। भय, चिन्ता, घबड़ाहट का उनमें लवलेश भी न था।
उस समय उच्च पुलिस अधिकारी ने उस ब्राह्मण को पकड़कर महाराज की सेवा में उपस्थित किया और पूछा, “महाराज इस हत्यारे को क्या दण्ड दिया जाय।"
तब महाराज ने कहा, “इसे छोड़ देना चाहिये, यह हमारा कहना है। जब तक तुम इसे न छोड़ोगो, तब तक हमारे अन्न-जल का त्याग है।"
उस समय सबने देखा था कि महामना मुनिराज वस्तुत: शांति के सागर थे, जो अपने प्रेम के द्वारा प्राणघातक आततायी पर भी अपनी अनुकम्पा की अमृत वर्षा करते थे।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org