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संयम-पथ पिता का स्वर्गवास होने पर चार वर्ष पर्यन्त घर में रहकर इन्होंने अपनी आत्मा को निर्ग्रन्थ मुनि बनाने के योग्य परिपुष्ट कर लिया था। जब ये महाराज लगभग ४१ वर्ष के हुए, तब कर्नाटक प्रांत के दिगंबर मुनिराज देवप्पा स्वामी देवेन्द्रकीर्ति महाराज उत्तूरग्राम में पधारे। उनके समीप पहुँचकर महाराज ने कहा, “स्वामिन् ! मुझे निर्ग्रन्थ दीक्षा देकर कृतार्थ कीजिए।"
उन्होंने कहा, “वत्स ! यह पद बड़ा कठिन है। इसको धारण करने के बाद महान् संकट आते हैं, उनसे मन विचलित हो जाता है।"
महाराज ने कहा, “भगवन् ! आपके आशीर्वाद से और जिन धर्म के प्रसाद से इस व्रत का निर्दोष पालन करूँगा। प्राणों को छोड़ दूंगा, किन्तु प्रतिज्ञा में दोष नहीं आने दूंगा। मुझे महाव्रत देकर कृतार्थ कीजिए।" उत्तूर ग्राम में क्षुल्लक दीक्षा
जब गुरुदेव ने देखा कि यह श्मशान वैराग्य नहीं है, किन्तु संसार से विरक्त शुद्ध आत्मा की मार्मिक आवाज है। उन्हें विश्वास हुआ कि यह महाव्रत की प्रतिष्ठा को कभी लांछित नहीं करेगा, फिर भी उन्होंने दूर तक सोचा, यह विरक्त व्यक्ति सुखी श्रीमंत परिवार का है और महाव्रती बनने पर अपरिमित कष्ट सहन करने पड़ते हैं, इसलिए कुछ समय के लिए क्षुल्लक के व्रत देना उचित है, इसके पश्चात् यदि पूर्ण पात्रता दिखी, तो निग्रंथ दीक्षा दे दी जायेगी। यही बात गुरुदेव ने इस विरक्त शिष्य को कही। उन्होंने यह भी कहा कि क्रम पूर्वक आरोहण करने से आत्मा के पतन का भय नहीं रहता है। इस प्रकार गुरुदेव की आज्ञानुसार श्री सातगौड़ा पाटील ने उत्तूरग्राम में जेठ सुदी त्रयोदशी शक संवत् १८३७, विक्रम संवत् १९७२, सन् १९१५ में क्षुल्लक दीक्षा लेकर लघुमुनित्व का पद प्राप्त किया। यहां यह बात ज्ञातव्य है कि देवप्पा स्वामी से दो-तीन दिन तक चंपाबाई आत्माराम हजारे, उत्तूर के घर में सातौंडा पाटील की दीक्षा के बारे में चर्चा चली थी। उस घर में देवप्पा स्वामी २ वर्ष रहे थे। हम उस ग्राम में गए थे।
चंपाबाई ने बताया दीक्षा का निश्चय हमारे घर पर हआ था। दीक्षा का संस्कार घर से लगे छोटे मंदिर में हुआ था। उस गांव में १३ घर जैनों के हैं। अप्पा जयप्पा वणकुदरे ने कहा मेरे समक्ष दीक्षा का जुलूस निकला था। भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति का अभिषेक भी हुआ था। महाराज ने गुरु से कहा था, “मला दीक्षा द्या" (मुझे दीक्षा दीजिए)। गुरु ने दीक्षा दी।
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