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चारित्र चक्रवर्ती ऐसी विकट स्थिति जब मुनियों तक की थी, तब क्षुल्लकों की कथा निराली है। क्षुल्लक जीवन में परम्परा वश अपार विघ्न
महाराज बचपन से ही महान् स्वाध्यायशील व्यक्ति थे। वे सर्वदा शास्त्रों का चिंतन किया करते थे। विशेष स्मृति के धनी होने के कारण पूर्वापर विचार कर वे शास्त्र के मर्म को बिना सहायक के स्वयं समझ जाते थे। इसलिए उन्हें प्रचलित सदाचार की प्रवृत्ति में पायी जाने वाली त्रुटियों का धीरे-धीरे शास्त्रों के प्रकाश में परिज्ञान होता था। एक दिन महाराज ने कहा था, “हमने सोचा कि उपाध्याय के द्वारा पूर्व में निश्चय किये घर में जाकर भोजन करना योग्य नहीं है, इसलिये हमने वैसा आहार नहीं लिया, इससे हमारे मार्ग में अपरिमित कष्ट आये। लोगों को इस बात का पता नहीं था कि बिना पूर्व निश्चय के त्यागी लोग आहार के लिये निकलते हैं, इसलिये दातार गृहस्थ को अपने यहाँ आहार दान के लिये पड़गाहना चाहिये।" उस समय की प्रणाली के अनुसार ही लोग आहार की व्यवस्था किया करते थे। यह बात महाराज को आगम के विपरीत दिखी अतएव उन्होंने किसी का भी ध्यान न कर उसी घर में आहार लेने की प्रतिज्ञा की जहाँ शास्त्रानुसार आहार प्राप्त होगा।
इसका फल यह हुआ कि इनको बहुधा कई दिन तक आहार नहीं मिलता था। प्रभात में मंदिर के दर्शन कर चर्या को निकले, उस समय यदि किसी गृहस्थ ने कह दिया, "महाराज! आज हमारे गृह में भोजन कीजिए, तो उसके यहाँ चले गए, अन्यथा दूसरों के घर के समक्ष अपने रूप को दिखाते हुए चले। यदि पड़गाहे गए तो आहार किया, अन्यथा वह दिन निराहार ही व्यतीत होता था। इस प्रकार कभी कभी चार-चार, पाँचपाँच दिन तक भी निराहार रहना पड़ता था। ऐसे अवसर पर उपाध्याय भी प्रतिकूल हो गए थे। कारण इस अनुद्दिष्ट आहार की पद्धति के कारण उनको गृहस्थ के यहाँ जो अनायास आहार मिल जाता था, वह लाभ बंद हो गया।"
उस समय के मुनि लोग भी कहने लगे कि ऐसा करने से काम नहीं होगा। ये पंचम काल है। इसे देखकर ही आचरण करना चाहिए। ऐसी बात सुनकर आगम भक्त महाराज कहा करते थे, “यदि शास्त्रानुसार जीवन नहीं बनेगा, तो हम उपवास करते हुए समाधिमरण को ग्रहण करेंगे, किन्तु आगम की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करेंगे।" उस समय की परिस्थिति ऐसी ही विकट थी, जैसी कि हम पुराणों में, आदिनाथ भगवान के समय में विद्यमान पढ़ते हैं । जहाँ श्रावकों को अपने कर्तव्य का ज्ञान नहीं है, जानकार उपाध्याय लालच वश विघ्नकारी बन रहे हैं तथा बड़े-बड़े मुनि कालदोष के नाम पर शास्त्र की आज्ञा को भुला रहे हैं, वहाँ हमारा भविष्य का जीवन कैसे चलेगा, इस बात की महाराज को तनिक भी चिन्ता नहीं थी। उन्हें एक मात्र चिन्ता थी तो जिनवाणी के अनुसार प्रवृत्ति
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