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चारित्र चक्रवर्ती का त्रिकाल में भी उद्धार नहीं हो सकता। नसलापुर में चातुर्मास
यहाँ से चलकर इन धर्ममूर्ति ने भिन्न-भिन्न स्थानों में धर्म की प्रभावना की और नसलापुर में वर्षायोग व्यतीत किया। वहाँ इनके द्वारा बहुत धर्म प्रभावना हुई। चातुर्मास के समय एक स्थान पर रहकर जैन साधु अपने अहिंसा व्रत का रक्षण करते हुए स्व-पर उपकार में तत्पर रहते हैं। वर्षाकाल में सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति अधिक होती है, इसलिये वे जीव रक्षा की दृष्टि से एक स्थान पर निवास करते हैं। उस समय वे उपवास आदि के द्वारा अपने जीवन को समुज्ज्वल बनाते हैं। बाबानगर की सातिशय पार्श्व प्रभु की मूर्ति
वर्षाकाल के बाद महाराज बीजापुर के समीपवर्ती ग्राम बाबा नगर में आये। महाराज ने कहा था, “वहाँ पारसनाथ भगवान की लगभग एक हाथ ऊँची मूर्ति बड़ी मनोग्य और अतिशय सम्पन्न है। कहते हैं कि मूर्ति की नाभि में पारस था। वहाँ का उपाध्याय कभी कभी संकट काल में लोहे की शलाका को उस पारस से लगा सोने की बना लिया करता था। उस उपाध्याय ने मरते समय अपने पुत्र को मूर्ति के अतिशय की बात बताई। उसके मरते ही पुत्ररत्न ने दिन भर में इतनी लोहे की शलाका लगाकर सोना बनाना शुरु किया कि वह पारस उसमें से निकलकर खो गया। उस समय एक व्यक्ति की मूर्खता से वह महत्व की बात सदा के लिए चली गई।" वास्तव में देखा जाय तो भगवान की मनोज्ञ मूर्ति का अलौकिकपना अभी भी है, जो जीवन को स्वर्ण तुल्य बना देता है।
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आचार्य श्री के दीक्षा गुरु देवेन्द्रकीर्ति मुनि का वर्णन
एक बार मैंने महाराज से उनके गुरु के बारे में पूछा था तब उन्होंने बतलाया था कि “देवेन्द्रकीर्ति स्वामी से हमने जेठ सुदी १३ शक संवत् १८३७ में क्षुल्लक दीक्षा ली थी तथा फाल्गुन सुदी एकादशी शक संवत् १८४१ में मुनि दीक्षा ली थी। वे बाल ब्रह्मचारी थे, सोलह वर्ष की अवस्था में सेनगण की गद्दी पर भट्टारक बने थे। उस समय उन्होंने सोचा था कि गद्दी पर बैठे रहने से मेरी आत्मा का क्या हित सिद्ध होगा, मुझे तो झंझटों से मुक्त होना है, इसलिये दो वर्ष बाद उन्होंने निर्ग्रन्थ वृत्ति धारण की थी। उन्होंने जीवन भर आहार के बाद उपवास और उपवास के बाद आहार रूप पारणा-धारणा का व्रत पालन किया था।" - वार्तालाप, ४८
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