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संयम-पथ
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समन्तभद्र स्वामी ने भी कहा है (रत्नकरण्ड. ३४) :
न सम्यक्त्वसमं किंचित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि ।
श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत् तनूभृताम् ॥ यही बात विचार कर पूज्यश्री ने पहले गृहीत मिथ्यात्व रूपी ग्रहराक्षस से, भोले तथा भूले जैन बंधुओं की मुक्ति का मंगलमय सुधार-कार्य प्रारम्भ किया। लोग प्राय: शिथिलाचार के पोषण तथा भ्रष्ट स्वछंद प्रवृत्ति को सुधार' कहा करते हैं, किन्तु सच्चा सुधार वह है जिससे जीव का संसारपरिभ्रमण दूर होता है। वह पाप प्रवृत्तियों का परित्याग कर संयमशील हो सदाचार के पथ पर लगता है। समाज में विद्यमान सत्वृत्तियों को उखाड़कर, पाप मूलक प्रवृत्तियों तथा व्यसनों को पुष्टि प्रदान करने वाली कल्मषमय वृत्तियों को सुधार का नाम देकर, मोह तथा मिथ्यात्व के चक्कर में फंसे हुए जीव जनसाधारण को कुमार्ग पर पहुंचाते हैं। ऐसे अवसर पर कुछ यश-लिप्सु लोग सत्य कहने का साहस न होने से, जानते हुए भी कुपथ में जाने वालों को प्रोत्साहन देने में संकोच नहीं करते हैं। ऐसे काल में जिनागम पर दृढ़प्रतीति धारण कर निर्भय हो जीव के परमार्थ कल्याण का उपदेश दे, मिथ्यामार्ग से बचाने वाले पूज्य श्री सदृश सत्पुरुषों का दर्शन तक दुर्लभ है। मिथ्यात्व त्याग करने का कारण __ आज-कल कुछ लोग अपने सम्प्रदाय के कट्टर भक्त होते हुए, जनता के समक्ष अपने आपको सर्व-धर्म समभाववाले बता सबसे आदर, गौरव तथा प्रशंसा प्राप्त करने की चतुरता दिखलाते हैं। ऐसे लोग शंका कर सकते हैं कि आपके गुरुदेव ने मिथ्यात्व का प्रसार रोकने का श्रम क्यों किया? इसमें क्या सार है ? उनके ऐहिक सुख व लाभ के लिए या शिक्षा-प्राप्ति के हेतु यदि वे उद्योग करते तो कहीं अच्छा होता, इससे राष्ट्र का भी अभ्युदय होता।
यह प्रश्न स्थूल दृष्टि से बड़ा मोहक दिखता है, किन्तु परमार्थ के विचार से उचित नहीं ज्ञात होता। मिथ्यात्व की आराधना से यह जीव मोक्षमार्ग से वंचित हो जाता है। इसकी विवेक शक्तिहीनता से प्राण हरण हो जाता है और विवेक की मृत्यु होने से विज्ञ व्यक्त्वि के समक्ष समस्त जीवन ही सार-शून्य विदित होता है । जैन धर्म वैज्ञानिक विचारपूर्ण है। वह वैज्ञानिकदृष्टि को मोक्ष का मूल मानता है। यह मिथ्या धारणाओं तथा अवैज्ञानिक मान्यताओं को आश्रय देना सर्प को दूध पिलाने के तुल्य समझता है।
जिस तरह रोगी के शरीर में फोड़ा होने पर उसके प्रति ममत्व दिखा शल्य क्रिया (ऑपरेशन) का जो विरोध करता है, वह परमार्थत: उसका हित चिन्तक नहीं, अपितु शत्रु है। किन्तु डॉक्टर भयंकर शस्त्र का उपयोग कर उसे असहाय वेदना देते हुए भी हितैषी, मित्र तथा सबंधु माना जाता है, क्योंकि वह उस रोगी के रोग की जड़ से दूर कर
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