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संयम-पथ लिया है। वह तुरन्त पंच परमेष्ठी का स्मरण करता हुआ वहाँ पहुँचा और जैन मंत्र का प्रयोग किया, तत्काल विष बाधा दूर हो गई। इसके पश्चात् मंत्र का सफल प्रयोग देखकर वह महाराज के पास आया और बोला- “महाराज अब मुझे जीवन भर के लिए मिथ्यात्व के त्याग का नियम दे दीजिए।" महाराज ने उसे जीवन भर के लिये नियम दे दिया।
इससे महाराज की जिनागम पर प्रगाढ़ श्रद्धा तो स्पष्ट ज्ञात होती ही है, किंतु साथ ही साथ विकट स्थिति में भी धर्मपथ से नहीं डिगने की मेरुवत् अचलवृत्ति भी ज्ञात होती है।
इस प्रसंग में यह बात ज्ञातव्य है कि जिनेन्द्र की वाणी में मंत्र की महत्ता पर बहुत प्रकाश डाला गया है। द्वादशांगरूप जिनवाणी में विद्या-साधनादि का वर्णन है।
'धवला' टीका में लिखा है, कि 'विद्यानुवाद' नाम का दसवां पूर्व है, उसमें पन्द्रह वस्तुगत, तीन सौ प्राभृतों में एक करोड़ दस लाख पदों द्वारा अंगुष्ट प्रसेना आदि सात सौ अल्प विद्याओं का, रोहिणी आदि पांच सौ महाविद्याओं का और अंतरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, स्वप्न, क्षण, व्यंजन, चिह्न इन आठ महानिमित्तों का वर्णन मिलता है। मंत्रविद्या में पारंगत हुए बिना श्रुतकेवली नहीं होते। श्रुतकेवली भद्रबाहु मंत्रविद्या में पूर्ण निपुण थे। अज्ञानवश कहा जाता है कि मंत्रशास्त्र का जैनधर्म में कोई स्थान नहीं है। भरत चक्रवर्ती ने मंत्र की आराधना द्वारा मागध देव को वश में किया था (महापुराण पर्व २८)। आज मंत्र विद्या के ज्ञाताओं का जैन समाज में दर्शन दुर्लभ हो जाने से दुःखी व्यक्ति जिनेन्द्र भगवान को भूल, कुदेव तथा कुगुरु की आराधना करता फिरता है। पहले जैन समाज में बड़े बड़े समर्थ मांत्रिक व्यक्ति हो चुके हैं। __सन् १९५० में ग्वालियर जाने पर हमें विदित हुआ कि वहाँ तीन-चार सौ वर्ष पूर्व जो भट्टारक जी थे उनकी ग्वालियर तथा दिल्ली के दरबार में बड़ी प्रतिष्ठा थी। दिल्ली के लाल किले के सामने अवस्थित लालमन्दिर नाम से ख्यात जिनालय मंत्रविद्या के प्रभाववश अत्याचारी शासकों तथा धर्मान्धों द्वारा नहीं हड़पा जा सका। जैन मंत्रों की अपार सामर्थ्य आज भी विद्यमान है। सदाचार, श्रद्धा तथा दृढ़तापूर्वक आराधना करने वाले के लिए वे मंत्र कल्पवृक्ष के समान कामना पूर्ण करते हैं। आचार्य महाराज ने मंत्रसाधक जैन बंधु को सर्प का विष उतारने वाला सविधि जैनमंत्र सिखाया था। जैनमंत्र के महान् सामर्थ्य का प्रत्यक्ष अनुभव लाभ के उपरान्त वह जैन बंधु महाराज के पास आकर बोला कि महाराज जैन मंत्रो में एक और महत्व की बात ज्ञात हुई कि इसमें सर्प का विष अत्यंत शीघ्र दूर होता है तथा भीषण रोगों की शीघ्र उपशांति होती है। पंचनमस्कार मंत्र की श्रेष्ठता
सोमदेव सूरि ने लिखा है, “सर्वज्ञ जिनेन्द्र से सर्व विद्याओं की उत्पत्ति हुई है। पंच परमेष्ठी के वाचक शब्दों का ध्यान करना अविनाशी तथा सर्वविद्याओं का आधार है।
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