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चारित्र चक्रवर्ती
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शिथिलाचारी साधु के प्रति आचार्य श्री का अभिमत
इसे ध्यान में रखकर मैंने एक बार आचार्यश्री से पूछा- “शिथिलाचरण वाले साधु के प्रति समाज को या समझदार व्यक्ति को कैसा व्यवहार रखना चाहिए ?" ___ महाराज ने कहा-“ऐसे साधु को एकान्त में समझाना चाहिए। उसका स्थितिकरण करना चाहिए।"
मैंने पूछा-“समझाने पर भी यदि उस व्यक्ति की प्रवृत्ति न बदले तब क्या कर्तव्य है ? पत्रों में उसके सम्बन्ध में समाचार छपाना चाहिए या नहीं ?
महाराज ने कहा- “समझाने से भी काम न चले, तो उसकी उपेक्षा करो, उपगृहन अंग का पालन करो, पत्रों में चर्चा चलने से धर्म की हंसी होने के साथसाथ मार्गस्थ साधुओं के लिए भी अज्ञानी लोगों द्वारा बाधा उपस्थित की जाती है।" ___ महाराज ने यह भी कहा कि “मुनि अत्यन्त निरपराधी है। मुनि के विरुद्ध दोष
लगाने का भयंकर दुष्परिणाम होता है, श्रेणिक की नरकायु का कारण निरपराध मुनि के गले में सर्प डाला जाना था। अतः सम्यक्दृष्टि श्रावक विवेक पूर्वक स्थितिकरण उपगूहन, वात्सल्य अंग का विशेष ध्यान कर सार्वजनिक पत्रों में चर्चा नहीं चलाएगा।" ___ आचार्यश्री का उपरोक्त मार्ग दर्शन सत्पुरुषों के लिए चिरस्मरणीय है। उच खल तथा दुर्गतिगामी जीव की निन्दा की ओट में सच्चे साधु के मार्ग में भी कंटक बिछ जाते हैं। अतः सार्वजनिक पत्रों में उत्सूत्र चलने वाले की भी चर्चा छापना उचित नहीं है। उसका स्वच्छनदवृत्ति वाले पर तो क्या असर पड़ेगा, सच्ची आत्माओं को कष्ट होगा। मिथ्यादृष्टि विधर्मी भी सत्साधु की निन्दा पर उतर आते हैं। सम्यक्त्वी जिनेन्द्र भक्त श्रेष्ठिवर का कथानक इस तत्त्व को हृदयंगम करने में सहायक है। अतः गुरुदेव का आदेश पालन करना प्रत्येक सज्जन धर्मात्मा श्रावक का पावन कर्तव्य है। वह आदेश दूरदर्शितापूर्ण है। __- तीर्थाटन,शिथिलाचारी साधु के प्रति क्या किया जाये ? पृष्ठ १४६ -१५०
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