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चारित्र चक्रवर्ती
क्षुल्लक दीक्षा ली, तब दूसरे दिन लोगों ने जाकर कहा- "महाराज आपने तो हमसे दीक्षा की कोई भी चर्चा नहीं की?" इस पर उन्होंने कहा - " दीक्षा लेने की बात बोलना ही चाहिए, ऐसा कोई नियम नहीं है । हमारे वैराग्य के परिणाम पहले से ही थे, ये बात आप लोग जानते ही हैं ।" इसके पश्चात् उन्होंने थोड़ा सा वैराग्य का उपदेश दिया, जो कि अपूर्व था ।
क्षुल्लक सुमति सागरजी फलटण वाले संपन्न तथा लोकविज्ञ व्यक्ति थे। उन्होंने संवत् १६६६ में नादरे में आचार्य शान्तिसागर महाराज के पास से क्षुल्लक दीक्षा ली थी। उनकी अवस्था ६४ वर्ष के लगभग थी। उनसे जब हमने आचार्य महाराज के विषय में प्रश्न किए, तब उन्होंने इन शब्दों में प्रकाश डाला, “मेरी रुचि अध्यात्म शास्त्र में अधिक थी। इससे अध्यात्म चर्चा करने हेतु प्रसिद्ध कारंजा के भट्टारक वीरसेन स्वामी के पास बहुधा जाया करता था। उनका मुझ पर बहुत प्रभाव था । " आज से लगभग ३० वर्ष पूर्व समडोली ग्राम में मुझे आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आध्यात्मविद्या के महान् ज्ञाता
इनके संपर्क में आते ही, मेरे मन में यह बात आई कि आज हमें सच्चे आध्यात्मविद्या के महान् ज्ञानी गुरुदेव का समागम मिला है। मैं इनसे आत्मा संबंधी बहुत चर्चा किया करता था, जिसका उत्तर सुनते ही मेरे हृदय के कपाट खुल जाते थे । इनके तत्त्व प्रतिपादन में एकान्त पक्ष का पोषण नहीं रहता था । ये स्याद्वाद की सुमधुर शैली का आश्रय लेकर आत्मस्वरूप का प्रतिपादन करते थे। इनके कथन में अनुभूति की अपूर्व छटा पाई जाती थी ।
समडोली से चलकर महाराज ने कोन्नूर में चातुर्मास किया । वहाँ मैंने देखा कि राजस आसन से बैठते थे, उसमें परिवर्तन नहीं किया करते थे । एक आसन पर बैठे हुवे घंटो चर्चा करते थे। उनकी वाणी में ओज, माधुर्य, सरलता का अपूर्व समन्वय रहता था। उनके कथन में अपूर्व आकर्षण पाया जाता है, इससे उनके मुख से निकले वाक्यों को सदा सुनते रहने की लालसा लगी रहती थी।
व्यवहार कुशलता
आचार्य महाराज की व्यवहार कुशलता महत्वपूर्ण थी । सन् १६३७ में आचार्यश्री ने सम्मेद शिखर जी की संघ सहित यात्रा की थी, उस समय मैं उनके साथ-साथ सदा रहता था। सर्वप्रकार की व्यवस्था तथा वैयावृत्य आदि का कार्य मेरे ऊपर रखा गया था। उस अवसर पर मैंने आचार्यश्री के जीवन का पूर्णतया निरीक्षण किया और मेरे मन पर यह प्रभाव पड़ा कि श्रेष्ठ आत्मा में पाये जाने वाले सभी शास्त्रोक्त गुण उनमें विद्यमान हैं। प्रवास करते हुये मार्ग में कई बार जंगली जानवरों का मिलना हो जाता था, किन्तु महाराज में रंचमात्र भी भय या चिन्ता का दर्शन नहीं होता था। उन जैसी निर्भीक आत्मा के आश्रय से सभी यात्री
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