________________
चारित्र चक्रवर्ती सर्वत्र पैगम्बर पूजा जाता है। आचार्य श्री के जीवन में यह बात नहीं है। वे छोटे से कुटुम्ब तथा स्नेही जनों का साथ छोड़कर जगत भर के प्रति मैत्री की भावना धारण कर, जब विश्वबंधु बनने गए, उस समय भोजग्राम तथा आसपास के हजारों व्यक्ति इस प्रकार रोये थे, मानो उनका सगा बंधु ही जा रहा है। यह इस बात का द्योतक है कि पूज्य श्री का जीवन प्रारंभ से ही असाधारण तथा सद्गुणों का निकेतन रहा है। लोक के विषय में अनुभव
पूज्यश्री का लोक का अनुभव भी महान्था।वे लोकानुभव तथा न्यायोचित सद्व्यवहार के विषय में एक बार कहने लगे, “मनुष्य सर्वथा खराब नहीं होता। दुष्ट के पास भी एकाध गुण रहता है। अत: उसे भी अपना बनाकर सत्कार्य का संपादन करना चाहिए। व्यसनी के पास भी यदि महत्व की बात है तो उससे भी काम लेना चाहिए।" उन्होंने यह भी कहा था, “ऐसी नीति है कि मनुष्य को देखकर काम कहना और वृक्ष को देखकर आराम करना चाहिए।" उनके निकट संपर्क में आने वाले जानते हैं कि आध्यात्मिक जगत के अप्रतिम महापुरुष होते हुए भी यथोचित लोकव्यवहार तथा सज्जन धर्मात्माओं को यथायोग्य सम्मानित करने में वे अतीव दक्ष थे। अन्य धर्मवाला व्यक्ति भी आकर उनके चरणों का दास बन जाता था। मधुर व्यवहार
एक बार महाराज अहमदनगर (महाराष्ट्र प्रांत) के पास से निकले। वहाँ कुछ श्वेताम्बर भाइयों के साथ एक श्वेताम्बर साधु भी थे। वे जानते थे कि महाराज दिगम्बर जैनधर्म के खूटी के सदृश पक्के श्रद्धानी हैं। वे हम लोगों को मिथ्यात्वी कहे बिना नहीं रहेंगे, कारण कि नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने हमें संशय मिथ्यात्वी कहा है। उस श्वेताम्बर साधु ने मन में अशुद्ध भावना रखकर प्रश्न किया, “महाराज आप हमको क्या समझते हैं ?" उस समय महाराज ने कहा, “हम तुम्हें अपना छोटा भाई समझते हैं।" इस मधुर रसपूर्ण उत्तर से उन्होंने अपने को कृतार्थ अनुभव किया। महाराज ने कहा, "पहले हममें तुममें अन्तर नहीं था, पश्चात् कारण विशेष से पृथकपना हो गया, अत: तुम भाई ही तो हो।"
यदि आचार्यश्री के स्थान पर कोई दूसरा व्यक्ति विवेकपूर्ण ऐसी बात न कहता, तो कलह, विद्वेष और संक्लेश जनक वातावरण सहज ही हो जाता। वाणी का संयम, महाराज में अद्भुत था। जब वे बोलते थे, तब श्रोताओं की इच्छा यही होती थी कि इनके मुख से अमृतवाणी का प्रवाह बहता ही जावे और उसे कर्णपात्र द्वारा पीते चले जावें।
१९४६ अगस्त की बात है, एक दिन महाराज कवलाना में विराजमान थे। एक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org