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चारित्र चक्रवर्ती तेज था । पूर्ण शांति भी थी। वे धर्म कथा के सिवाय अन्य पापाचार की बातों में तनिक भी नहीं पड़ते थे। मैं उनके चरणों के समीप पहुंचा, बडे ध्यान से उनकी शांत मुद्रा का दर्शन किया। उन्होंने मेरे अतं:करण को बलवान चुम्बक की भांति अपनी ओर आकर्षित किया था। नान्दणी में हजारों जैन अजैन नर- नारियों ने आ-आकर उन महापुरुष के दर्शन किये थे। सभी लोग उनके असाधारण व्यक्तित्व, अखंड शांति, तेजोमय मुद्रा से अत्यंत प्रभावित हुए थे। उनका तत्त्व प्रतिपादन अनुभव की कसौटी पर कसा, अत्यंत मार्मिक तथा अंतःस्थल को स्पर्श करने वाला होता था। लोग गम्भीर प्रश्न करते थे, किन्तु उनके तर्क संगत समाधान से प्रत्येक शंकाशील मन को शांति का लाभ हो जाता था। उनकी वाणी में उग्रता या कठोरता अथवा चिड़चिड़ापन रंचमात्र भी नहीं था। वे बड़े प्रेम से प्रसन्नता पूर्वक सयुक्तिक उत्तर देते थे। उस समय मेरे मन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि इन समागत साधू चूडामणि को ही अपने जीवन का आराध्य गुरु बनाऊँ और इनके चरणों की निरन्तर समाराधना करूँ। उनकी आलौकिक मुद्रा के दर्शन से मुझे कितना आनन्द हुआ, कितनी शांति मिली और कितना आत्मप्रकाश मिला उसका मैं वर्णन करने में असर्मथ हूँ। इन मनस्वी नर रत्न के आज दर्शन की जब भी मधुर स्मृति जग जाती है, तब मैं आनन्द विभोर हो जाता हूँ। उनका तपस्वी जीवन चित्त को चकित करता था। उस समय वे एक दिन के अतंराल से एक बार केवल दूध चावल लिया करते थे। वे सदा-आत्म चिंतन, शास्त्र-स्वाध्याय तथा तत्त्वोपदेश में संलग्न पाये जाते थे। लोककथा, भोजनकथा, राष्ट्रकथा, आदि से वे अलिप्त रहते थे। उनके उपदेश से आत्मा का पोषण होता था। उनका विषय प्रतिपादन इतना सरस और स्पष्ट होता था कि छोटे-बड़े, सभी के हृदय में उनकी बात जम जाती थी। उनके दिव्य जीवन को देखकर मैनें उनको अपना आराध्य गुरु मान लिया था। मैं उनके अनुशासन तथा आदेश में रहना अपना परम सौभाग्य मानता हूँ। मेरे ऊपर उनकी बड़ी दयादृष्टि थी।
एक धार्मिक संस्थान के मुख्य मठाधीश होने के कारण मेरे समक्ष अनेक बार भीषण जटिल समस्याएँ उपस्थित हो जाया करती थी। उस स्थिति में गुरुराज स्वप्न में दर्शन दे मुझे प्रकाश प्रदान करते थे। उनके मार्गदर्शन से मेरा कंटकाकीर्ण पथ सर्वदा सुगम बना है। अनेक बार स्वप्न में दर्शन देकर उन्होनें मुझे श्रेष्ठ सयंम पथ पर प्रवृत्त होने को प्रेरणापूर्ण उपदेश दिया। मेरे जीवन का ऐसा दिन अब तक नही बीता है, जिस दिन उन साधुराज का मंगल स्मरण नहीं आया हो। उनकी पावन स्मृति मेरे जीवन की पवित्र निधि हो गयी है। उससे बड़ी शांति और अवर्णनीय आह्लाद प्राप्त होता है। इस समय मठ की सम्पत्ति तथा उसकी आय के उपयोग के विषय में मैंने उनसे प्रश्न किया, तब महाराज ने
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