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वातावरण
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का उदय दूर नहीं होता है, तब तक सकल संयम के सत्पथ पर चलने का सौभाग्य किसे प्राप्त हो सकता है ? अतः गुरु- चरणों के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करना आगम सम्मत तथा शिष्टाचार पद्धति के पूर्णतया अनुरूप है, यह विचार कर इस कार्य की पूर्ति निमित्त संलग्न हो गये ।
उपरोक्त आचार्य श्री की अत्यंत वीतराग परिणति के कारण अब कुछ सामग्री पाना, जो उनके बाल्य जीवन, तारुण्य जीवन की विशिष्ट घटनाओं को बतावेगी, असंभव प्राय: हो गई। उनकी रुचि एकदम आत्मविचार, आत्मध्यान की ओर हो गयी थी । उन्होंने कार्तिक मास में यही भावना व्यक्त की थी और कहा था, तुम्हें जब चाहे, जितने दिन हमारे पास रहना हो, रहो और आत्मा, ध्यान, तत्त्व - चिंतन आदि के बारे चर्चा करनी हो, प्रश्न करना हो, तो हृदय खोलकर करो। इस स्थिति में पूज्यश्री के साथ, जीवन के पूर्व की अपूर्व घटनाओं का चित्रण करना हमारे हाथ की बात नहीं है । फिर भी भिन्न-भिन्न साधनों से जो कुछ उनके महामहिम जीवन को जानने की सामग्री उपलब्ध हुई, उसके आधार पर उद्देश्य सिद्धि के क्षेत्र में उद्योग किया जायेगा । वादीभसिंह सूरि ने लिखा है कि थोड़ा भी अमृत रस का पान, आनंद का कारण होता है, पीयूषं नहि निःशेष पिवन्नेवसुखायते । अतः जो भी सामग्री प्रस्तुत की जायेगी वह यथार्थ में अमृत होगी। जो मुमुक्षु के अमृत पथ प्रस्थान के लिए स्वादु व स्वास्थ्यप्रद पाथेय का कार्य करेगी।
वैराग्य का कारण
एक दिन मैंने (आचार्य श्री से ) पूछा, "महाराज वैराग्य का आपको कोई निमित्त तो मिला होगा ? साधुत्व के लिये आपको प्रेरणा कहाँ से प्राप्त हुई । पुराणों में वर्णन आता है कि आदिनाथ प्रभु को वैराग्य की प्रेरणा देवांगना नीलांजना का अपने समक्ष मरण देखने से प्राप्त हुई थी । "
महाराज ने कहा, “हमारा वैराग्य नैसर्गिक है। ऐसा लगता है कि जैसे यह हमारा पूर्व जन्म का संस्कार हो । गृह में, कुटुम्ब में, हमारा मन प्रारंभ से ही नहीं लगा। हमारे मन में सदा वैराग्य का भाव विद्यमान रहता था । हृदय बार-बार गृहवास के बंधन को छोड़ दीक्षा धारण के लिये स्वयं उत्कंठित होता था । "
पृष्ठ ६७, संयम पथ
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