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चारित्र चक्रवर्ती परिवार की पवित्रता का पुत्रादि के जीवन पर कैसा प्रभाव पड़ा करता है। उस घर ने आचार्य शांतिसागर महाराज सदृश महापुरुष को जन्म दिया, उसी में श्री देवगौडा नाम के महाराज के ज्येष्ठ बन्धु ने निवास किया, जो आज दिगंबर मुनि श्री वर्धमान सागर जी के रूप में १२ वर्ष की अवस्था में निर्दोष रीति से रत्नत्रय धर्म का पालन कर रहे हैं। (जो कि ६७ वर्ष की आयु में समाधिमरण पूर्वक स्वर्गीय विभूति बन गये।)
जब हमने कोल्हापुर के समीप जाकर किनी ग्राम में उनके दर्शन ८ सितंबर को किये, तब अवर्णनीय आनंद प्राप्त हुआ। उनकी शांति, तपस्या, मार्मिकता, ध्यान निमग्नता तथा वीतरागता, वंदक के अन्त:करण को अत्यंत आनंदित करती है । वे आचार्य महाराज से दस वर्ष ज्येष्ठ हैं। जिस घर में ऐसे दो पवित्र जीवन वाले सचमुच में महान आत्माओं का निवास रहा, उसका जीवित प्रभाव उपरोक्त भाई बहनों की बातचीत में स्पष्ट हुआ। हमें स्मरण आया कि मीमांसाशास्त्र का महान् विद्वान् मंडन मिश्र के विषय में कि वह कहाँ रहता है, ऐसा प्रश्न उपस्थित हुआ ? तब किसी व्यक्ति ने जिज्ञासु से कहा था कि, “जिस स्थल पर तोता आदि पक्षीगण न्यायशास्त्र की पंक्तियों का इस प्रकार उच्चारण कर रहे हों कि स्वतः प्रमाण, परतः प्रमाणं कीरांगनाः यत्र गिरः गिरन्ति," वहाँ ही मीमांसशास्त्री मंडनमिश्र का निवास है, यह जानना चाहिए। इसी प्रकार यदि किसी के चित्त में इस बात को जानने की इच्छा हो कि भोज भूमि में किस जगह आचार्य शांतिसागर महाराज ने रहकर अपना पुण्य जीवन व्यतीत किया था, तो हम उससे यही कहेंगे कि उनका घर उसी भूमि को जानना चाहिये, जहाँ भाई-बहन के बीच में मुनि जीवन की पूर्ववत् चर्चा चला करती है। सचमुच में जो शिक्षा बड़े-बड़े विश्व-विद्यालयों के द्वारा नहीं हो पाती, वह उत्तम संस्कारों से संस्कारित परिवार के लोगों से प्राप्त होती है। बाल्य जीवन में माता-पिता के संस्कार शिशु के अंत:करण पर बीज रूप में अंकित हो जाते हैं, जो आगामी जीवन में सहस्र गुणित वृद्धि को प्राप्त हो बालक को लोकोत्तर महापुरुष बनाते हैं। बाल्य जीवन पर परिवार का प्रभाव
गान्धीजी के जीवन पर गुजरात में विद्यमान अहिंसात्मक जीवन का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। गान्धीजी ने अपनी आत्मकथा में बताया है कि उनके जीवन पर उनके माता पिता का बड़ा प्रभाव पड़ा था। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है कि “मेरे पिताजी सत्यप्रिय
और उदार थे। धनसंचय करने का लोभ पिताजी को कभी नहीं हुआ था। माताजी बड़ी साध्वी स्त्री थी। इस बात की याद मेरे हृदय में गहरी छाप की तरह अंकित है। जब से मैंने होश सम्हाला, तब से कभी भी उन्होंने चातुर्मास व्रत भंग किया हो, ऐसा मुझे स्मरण नहीं है। वे कड़े से कड़े व्रत को ग्रहण कर लेती थी और उसे अंत तक
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